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उत्तर वैदिक कालीन आर्थिक जीवन(Economy of Post Vedic period in hindi)

अर्थव्यवस्थाउत्तर वैदिक काल Economy- Post Vedic period

उत्तर वैदिक काल में विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन देखे जाते हैं। भारत के उत्तरी भाग में लौह युग का प्रारम्भ हुआ, जिससे कृषि कार्य के लिए नवीन उपकरणों का निर्माण होने लगा। कृषि के प्रसार से कबायली संगठन में भी विघटन हुआ एवं छोटे-छोटे कबीले एक दूसरे में विलीन होकर बड़े क्षेत्रगत जनपदों के रूप में उभर रहे थे।

कृषि लोगों का प्रमुख व्यवसाय बन चुका था और इस तरह सामान्य जीवन में स्थायित्व का विकास हुआ। इस काल में स्थायी रूप से खेती करने के लिए जंगल साफ करने हेतु लोहे की कुल्हाड़ी का प्रयोग किया गया। ऐसा समझा जाता है कि लोहे के नोक वाले हल एवं कुदाल ने कृषि यन्त्रों की क्षमता को बढ़ाया जिससे कृषि कार्यों का विस्तार हुआ। विद्वानों की मान्यता है कि लोहे के प्रयोग ने कृषि अर्थव्यवस्था को और विकसित करने में विशेष योगदान दिया। तथापि लौह उपकरणों के निर्माण में वांछित विकास अभी तक नहीं हो पाया था।

1.कृषि :- उत्तर वैदिक काल में कृषि आर्यों का मुख्य पेशा हो गयी। तैतरीय उपनिषद् में कहा गया है कि अन्न ही ब्रह्म है। इसी अन्न से समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं। कृषि हल-बैल की सहायता से होती थी। अथर्ववेद का यह कथन है सर्वप्रथम पृथ्वीवेन ने हल और कृषि को जन्म दिया। जौ के अतिरिक्त अब गेहूँ एवं चावल मुख्य फसल हो गई और भी कई प्रकार की फसले अस्तित्व में गई। तैतरीय संहिता में जौ, धान, उड़द, तिल आदि की चर्चा है। अथर्ववेद में छह से बारह बैल हल में जोतकर गहरी जुताई करने का वर्णन तथा खाद का प्रयोग करने का उल्लेख मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में खेत जोतनें, बीज बोने, फसल काटने और पीटकर अनाज गाहने का वर्णन है। इस काल में किसान पहले हल में गुलर उदुम्बर या खादिर की लकड़ी का प्रयोग करते थे। आगे चलकर 700 .पू. के लगभग लोहे की फाल का प्रयोग हुआ। साठ दिनों में पकने के कारण, धान को षष्ठि भी कहा जाता था। चावल के विभिन्न प्रकारों में आशुधान्य जल्दी पकने वाली चावल था, जबकि हायन् एक वर्ष में पकने वाला चावल था। यजुर्वेद में चावल के पाँच किस्मों की चर्चा हुई है यथा, महाब्रीहि, कृष्णब्रीहि, शुक्लब्रीहि, आशुधान्य और हायन्। अथर्ववेद में चावल के दो किस्म-ब्रीहि एवं तन्दुल की चर्चा है। अंतरजीखेड़ा और हस्तिनापुर से चावल के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यजुर्वेद में कुछ अन्य फसल मास (उड्द), यव (जौ), श्यामाक (मोटे अनाज), गन्ना, तिल, सन (पटुआ) की चर्चा है। बाजसनेयी संहिता में गेहूँ के लिए गोधूम शब्द का उल्लेख है। सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में कृषि की समस्त प्रक्रियाओं का वर्णन है। काष्क संहिता में 24 बैलों के द्वारा जुताई की चर्चा मिलती है।

संभवत: अधिक गहराई से जुताई होती थी। शतपथ ब्राह्मण में कृषि से संबंधित अनुष्ठानों की चर्चा है। राजा जनक स्वयं हल का फाल पकड़ते हैं। बलराम हलधर कहे जाते थे। इसका अर्थ है, अब कृषि कार्य से जुड़े व्यक्तियों को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था। अथर्ववेद में सिंचाई के साधन के रूप में वर्णाकूप एवं नहर (कुल्या) का उल्लेख है। वर्ष में दो फसलें उगाई जाती थीं और खाद के रूप में गोबर (शकृत और करिषु) का प्रयोग होता था। अथर्ववेद में मौसम (प्रतिवृष्टि और अनावृष्टि) की भविष्यवाणी करने वाले का उल्लेख मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद् में टिड्डियों द्वारा फसल नष्ट होने के कारण दुर्भिक्ष का वर्णन मिलता है तथा इस दुर्भिक्ष के कारण ऋषि चक्रायण को सपत्नीक कुरूदेश छोड़कर अन्य प्रदेश में जाना पड़ा तथा कुल्माष खाकर रहना पड़ा। अथर्ववेद में सिंचाई के लिए नहर खोदने का उल्लेख भी मिलता है। अनावृष्टि की भी स्थिति होती थी और उससे बचने के लिए अथर्ववेद में मंत्र दिए गए हैं। छांदोग्य उपनिषद् में एक दुर्भिक्ष का उल्लेख है। उत्तर वैदिक काल में भूमि दान की चर्चा नहीं मिलती है। ऐसा भवना विश्वकर्मा नामक राजा की कहानी से ज्ञात होता है। अथर्ववेद में ही गोहत्या करने वालों के लिए मृत्युदण्ड का प्रावधान होने का उल्लेख मिलता है। उत्तर वैदिक काल तक आते-आते भूमि के निजी उपयोग के संकेत भी मिलने लगते हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में इस बात के संकेत मिलते हैं कि कोई क्षत्रिय अपने कबीले की सहमति से भूमि दान में दे सकता था। भवना विश्वकर्मा ने एक ब्राह्मण को भूमिदान दिया था।

2.पशुपालन :-  यह भी एक महत्त्वपूर्ण पेशा था। अथर्ववेद में एक जगह गाय, बैल और घोड़ों की प्राप्ति के लिए इंद्र से प्रार्थना की गई है। शतपथ ब्राह्मण में एक स्थान पर स्पष्ट कहा गया है कि गाय और बैल पृथ्वी को धारण करते हैं। अत: उनका माँस नहीं खाना चाहिए। गाय बैल के अतिरिक्त भैस, भेड़, बकरी विशेष महत्त्वपूर्ण थे। बड़े बैल को महोक्ष कहा जाता था। उत्तर वैदिक काल की एक विशेषता थी पालतू हाथियों को रखना। अत: उनकी देखभाल करना भी एक व्यवसाय था। इसे हस्तिप कहा जाता था। यजुर्वेद से भी इस बात की सूचना मिलती है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, दो गदहे अश्विन देवताओं का रथ खींचते थे। शतपथ ब्राह्मण में शूकर (सुअर) की चर्चा की गई है। यजुर्वेद में कैबर्न (मछुआरे) का उल्लेख है।

3.शिल्प उत्पादन अधिशेष इतना अधिक नही था कि उन्नत अर्थव्यवस्था का निर्माण हो सके क्योंकि अभी भी कृषि कायों में दासों को नहीं लगाया जाता था। वरन् केवल घरेलू सदस्यों की सहायता से ही कृषि कार्य किए जाते थे।कृषि के साथ विभिन्न प्रकार के उद्योगों एवं शिल्पों का उदय उत्तर वैदिककालीन अर्थव्यवस्था की विशेषता थी। इस काल के साहित्य में विविध उद्योगों की लम्बी सूची मिलती है। इन लघु उद्योगों के लिए शिल्प शब्द का प्रयोग हुआ है। यजुर्वेद के अतिरिक्त वाजसनेयी संहिता, शतपथ ब्राह्मण, पंचविशब्राह्मण आदि में अनेक शिल्पकारों का विवरण मिलता है। पुरुष मेघ यज्ञ में विभिन्न श्रेणी के मनुष्यों के रूप में दी जाने वाली बलि के सन्दर्भ में तत्कालीन व्यवसायों की लम्बी सूची मिलती है। यहाँ प्रमुख व्यवसायी वर्गों का उल्लेख करना युक्ति संगत होगा।

मागध का उल्लेख याज्ञवल्क्य एवं बौधायन (1/9/7) ने किया है। यह परवर्ती काल के चारण-भाटों के समान एक वर्ग था। शैलूष का उल्लेख  विष्णुधर्म सूत्र (54/13), आपस्तम्ब (9/38) एवं याज्ञवल्क्य (2/48) ने किया है। इन्हें अभिनय से मनोरंजन करने वाला कहा गया है। रथकार केवल रथ का निर्माण करते थे, बल्कि समाज के उपयोग में आने वाले अनेक लकड़ी के समान भी बनाते रहे होंगे। इसका उल्लेख बौधायन धर्मसूत्र (1/9/6) में मिलता है। कुलाल का विवरण वैदिक साहित्य में मिलता है। यह वर्ग मिट्टी के बर्तन निर्माण द्वारा जीविकोपार्जन करता था। कर्मार  (लोहार) वैदिक साहित्य में वर्णित है। मणिकार आभूषण बनाने का कार्य करते थे। इषुकार बाण निर्माताओं को कहा गया है। धनुषकार समाज के लिए धनुष आदि अस्त्र-शस्त्रादि का निर्माण करते थे। रज्जुसर्ज रस्सी बनाने वाले को कहा गया है। मृगयु शिकार से आजीविका चलाते थे। भिषज का उल्लेख वैदिक साहित्य में मिलता है, यह चिकित्सा द्वारा समाज सेवा करता था। गोपाल, गोपालन तथा अजपाल बकरी पालन का कार्य करते थे। कीनाश कृषि कर्म द्वारा अपना पालना करता था। सुराकार मदिरा बनाते थे। क्षता रथ संचालन का कार्य देखता था। दवहिार लकड़ी एकत्र कर आजीविका चलाता था। वासपल्पुली धोबन को कहा गया है यह समाज के वस्त्र धोने का कार्य करती थी। रजयित्री कपड़े रंगने वाली रंगरेजन को कहा गया है। भागदुध राज्य के लिए कर एकत्र करने का कार्य करता था। धीवर मछली पकड़ने का कार्य करके जीविका चलाता था। हिरण्यकार सुनार को कहा गया है। वणिक शब्द व्यापारी या बनिया के लिए प्रयुक्त हुआ है। ग्रामणी गाँव का मुखिया होता था। वंशनर्तिन शब्द नट के लिए प्रयुक्त हुआ है। हम देखते हैं कि उपर्युक्त सूची में व्यवसायों की विविध श्रेणियाँ सम्मिलित थीं जिनमें कुछ उद्योग एवं व्यवसायों से सम्बद्ध थे, जबकि अन्य को दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु श्रम विभाजन के आधार पर निर्मित वर्ग माना जा सकता है।

4.उद्योग :- धातु उद्योग का उत्कर्ष इस युग की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। आर्य लोग अनेक धातुओं से परिचित थे, जिनमें सोना, चाँदी, लोहा, तांबा, सीसा आदि उल्लेखनीय हैं। लोहे के लिए श्यामायस् अथवा कृष्णायस शब्द का प्रयोग होता था। लोहे से लोहकार हल, छुरा, चाकू, सुई आदि सामग्री बनाते थे। लोहे से ही युद्ध में उपयोग में आने वाले अस्त्र-शस्त्र का निर्माण किया जाता था। वैदिक साहित्य से जानकारी मिलती है कि स्वर्ण से कलात्मक आभूषणों का निर्माण किया जाता था। यज्ञों के अवसर पर स्त्रियाँ विविध प्रकार के स्वर्णाभूषण धारण करके आती थीं। सीसा को एक स्थान पर लोहा तथा सोना से भिन्न बताया गया है।

चर्मकार समाज के लिए चमड़े की अनेक उपयोगी वस्तुएँ बनाता था। स्त्री-पुरुष एवं बच्चे चमड़े से निर्मित सुन्दर जूते (उपानह) पहनते थे। चमड़े से बने पात्रों में घी, तेल, शहद आदि रखे जाते थे। कुलाल (कुम्हार) विभिन्न प्रकार के मिट्टी के पात्रों का निर्माण करते थे। यज्ञ के अवसर पर राजा कुलाल को आमन्त्रित करता था एवं छोटी-बड़ी ईंटें बनाने के लिए निर्देशित करता था। शतपथ ब्राह्मण में कुलालचक्र का उल्लेख मिलता है। घडे, मिट्टी के प्याले चाक पर बनाये जाते थे।

उत्तर वैदिक साहित्य में कपास का उल्लेख नहीं मिलता। यद्यपि ऊन (ऊणा) शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है, इससे प्रकट होता है कि ऊनी वस्त्रों का निर्माण विशेष रूप से होता था। अथर्ववेद में शण (सन) का उल्लेख हुआ है। इससे बोरे, सुतली, रस्सियाँ आदि बनाई जाती रही होंगी। मैत्रायणी संहिता में क्षोम का उल्लेख हुआ है। क्षोमवस्त्र धनिक वर्ग में विशेष रूप से प्रयुक्त होते थे। बुनाई एवं सूत कातने का कार्य प्रायः स्त्रियाँ करती रही होंगी। तैत्तरीय ब्राह्मण में वेमन् शब्द मिलता है, इनका अभिप्राय करघा से लिया जाता है। सम्भवतः इसकी सहायता से कपड़ा बुना जाता था। वस्त्रों पर कढ़ाई का कार्य भी स्त्रियाँ करती रही होंगी।इस काल में भिषज का व्यवसाय अधिक सम्माननीय नहीं माना जाता था। दूसरी ओर चिकित्सा के क्षेत्र में तंत्र-मंत्र का महत्त्व बढ़ गया था। अथर्ववेद में एक स्थान पर सर्पदंश के विष को दूर करने का मंत्र मिलता है। अथर्ववेद में क्षय, कोढ़, पागलपन, गठिया, नेत्ररोग, नासूर, फोड़ा-फुंसी आदि रोगों का विवरण आया है। समाज में सपेरों के एक विशिष्ट वर्ग का अस्तित्त्व इस युग में देखा जाता है।

5.वाणिज्य-व्यापार :-  व्यापार एवं वाणिज्य से सम्बद्ध लोगों के लिए वणिक शब्द का प्रयोग मिलता है। जबकि इस वर्ग के लिए ऐतरेय ब्राह्मण में श्रेष्ठि शब्द आया है। कदाचित् यह किसी व्यवसायिक संघ का अध्यक्ष होता था। वाजसेनयी संहिता गण और गणपति का उल्लेख करती है। यह शब्द भी किसी व्यवसायिक संगठन की ओर इंगित करता है। अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि देश के व्यापारी एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपनी सामग्री को लेकर विचरण करते थे। मुख्य रूप से वस्तु विनिमय प्रणाली ही प्रचलित थी। किन्तु कुछ सिक्कों की भी चर्चा मिलती है। परन्तु ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि वे नियमित सिक्के नहीं थे। सिक्के के रूप में निष्क, शतमान् और कृष्णल का उपयोग होता था। निष्क और शतमान्-320 रत्ति का होता था। कृष्णल 1 रत्ति या 1.8 ग्रेन का होता था। पाद भी संभवतः सिक्का ही था। उत्तर वैदिक काल में समुद्री यात्रा संभवत: होती थी क्योंकि शतपथ ब्राह्मण में जल प्रलय की चर्चा है। शतपथ ब्राह्मण में पहली बार सूदखोरी एवं महाजनी की चर्चा भी की गई है। महाजन को कुसीदिन कहा गया है।

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