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वैदिक कालीन राजनीतिक जीवन(Political System- Vedic Period in hindi)

 

राजनैतिक व्यवस्था- वैदिक काल Political System- Vedic Period

राजनैतिक अवस्था

1. राजा :- राजा वैदिक युग के राष्ट्र या जनपद का मुखिया होता था। सामान्यतया, राजा का पुत्र ही पिता की मृत्यु के बाद राजा के पद को प्राप्त करता था। पर इस वैदिक युग में प्रजा जिस व्यक्ति को राजा के पद पर वरण करती थी, उससे वह यही आशा रखती थी कि वह ध्रुवरूप से राष्ट्र का शासन करेगा। उसे किसी निश्चित अवधि के लिए राजा नहीं बनाया जाता था। इसीलिए अथर्ववेद में कहा है- हे राजन्, तू सुप्रसन्न रूप से राष्ट्र में दशमी अवस्था तक शासन करता रहे। 90 साल से ऊपर की आयु को दशमी अवस्था कहते हैं। राजा से वैदिक काल में यही आशा की जाती थी कि वह दशमी अवस्था तक (वृद्धावस्था तक) राष्ट्र के शासन का संचालन करता रहेगा।ऐसे अवसर भी उपस्थित हो सकते थे, जबकि राजा दशमी अवस्था तक राष्ट्र का शासन कर सके। राजा को कतिपय कारणों से निर्वासित भी कर दिया जा सकता था, और यदि जनता उसे राजा के पद पर पुन: अधिष्ठित करना चाहे, तो उसे निर्वासन से वापस भी बुलाया जा सकता था। जिस राजा का वरण विश या प्रजा करती थी, उससे वह कतिपय कर्तव्यों के पालन की आशा भी रखती थी।


राजा के मुख्यत: दो कर्तव्य थे: प्रथम, युद्ध में नेतृत्व करना और दूसरे, कबीले की रक्षा करना। युद्ध की आवश्यकताओं के अनुकूल राजा का पद था। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद के साक्ष्य से ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक काल में विश् समिति में एकत्रित होकर राजा का चुनाव करता था। किन्तु, वैदिक साहित्य में दी गई वंशावलियों से ऐसा प्रतीत होता है कि राजा का पद वंशानुगत था और पिता की मृत्यु के बद ज्येष्ठ पुत्र उत्तराधिकारी होता था। इस आधार पर गैल्डनर महोदय का मत है कि जन साधारण द्वारा राजा का चुनाव औपचारिकता मात्र था। किन्तु, यह औपचारिकता भी इस बात का द्योतक है कि उत्तराधिकारी के निर्णय में जनमत की भूमिका थी।

2. पुरोहित:-

                                पुरोहित का महत्त्वपूर्ण स्थान राजा के मंत्रियों में था। उसे राजा का प्रमुख परामर्शदाता माना जाता था एवं यह धारणा थी कि उसकी प्रार्थना राजा तथा जन की रक्षा करती है। युद्ध के समय पुरोहित राजा की विजय के लिए प्रार्थना ही नहीं करता था, बल्कि युद्ध में भी भाग लेता था। पुरोहित द्वारा राजा एवं उसके परिवार के धार्मिक कृत्यों के निष्पादन किये जाने के बदले उसे दान था। कीथ ने वैदिक पुरोहित को वैदिक राजनीति का अग्रज कहा है। कोई सन्देह नहीं है कि प्रारम्भिक वैदिक राज्य में विश्वामित्र एवं वशिष्ठ पुरोहितों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अत: कहा जा सकता है कि पुरोहित शान्ति तथा युद्ध दोनों अवस्थाओं में राजा का शिक्षक, पथ प्रदर्शक, मित्र तथा राजनैतिक एवं धार्मिक परामर्श-दाता होता था।

3. सेनानी :- युद्ध में विजय के लिए सैन्य संचालन करना राजा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था और सेनानी नामक मंत्री उसे इस कार्य में सहयोग प्रदान करता था। युद्ध नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता राजा की प्रमुख योग्यता मानी गई थी। स्मरणीय कि तत्कालीन युद्धों का प्रमुख कारण एक दूसरे के क्षेत्र पर अधिकार करने की कामना के साथ पशु धन की प्राप्ति भी था। उस काल में पशुधन की प्राप्ति के लिए युद्ध इतने सामान्य थे कि ऋग्वेद में युद्ध के लिए गविष्टि, गोषु, गवेषण, गव्यत आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। सामान्यतः पैदल एवं रथारोही सेना में होते थे। इसके अतिरिक्त अश्वारोहियों का अस्तित्व भी रहा होगा। रथों का युद्धों में विशेष महत्त्व था। राजा तथा प्रमुख योद्धा रथों पर सवार होकर युद्ध करते थे।

सुरक्षा की दृष्टि से योद्धा कवच एवं शिरस्त्राण युद्ध में धारण करते थे, जिनके लिए क्रमश: वर्म एवं शिप्र शब्दों का प्रयोग हुआ है। वैदिक मंत्रों में विविध अस्त्र-शस्त्रों का विवरण मिलता है। धनुष बाण युद्ध काल के प्रमुख शस्त्र थे, किन्तु परशु, भाला (सृक्ति), तलवार का प्रयोग भी किया जाता था। बाणों का आगे का सिरा सींग अथवा धातु से मढ़ दिया जाता था। कभी-कभी विषयुक्त बाण भी प्रयोग में लाये जाते थे। युद्ध के दौरान विभिन्न प्रकार की व्यूह रचनायें की जाती थीं। शर्ध, गण एवं व्रात आदि शब्द संभवतः विविध प्रकार की व्यूह रचनाओं को इंगित करते हैं। प्राय: नदियों के किनारे युद्ध आयोजित होते थे। दशराज्ञ युद्ध पुरुष्णी (रावी) तट पर लड़ा गया था। ऋग्वेद में पुर-चरिष्णु का उल्लेख मिलता है, जिसका तात्पर्य दुर्गों को गिराने के प्रयोग में लाया जाने वाला कोई उपकरण रहा होगा। युद्ध सम्बन्धी मामलों में सेनापति राजा का सहयोग करता था। सेनापति की नियुक्ति राजा द्वारा की जाती थी। राजा की सहायता से सेनापति सेना का गठन करता एवं युद्ध की योजना बनाता था। सेनानी के पद के विषय में जी.एस.पी मिश्र की मान्यता है कि वह अधिकारी राज्य के अधिक संस्थागत हो जाने के पश्चात् अस्तित्व में आया होगा।

यह कुलपति परिवार का मुखिया होता था, यह विशपति विश का प्रधान होता था। व्राजपति-चारागाह का अधिकारी होता था। साथ ही यह युद्ध में कुलप को संगठित कर युद्ध मैदान में ले जाता था, यह ग्रामणी ग्राम का प्रधान था और युद्ध में ग्राम का नेतृत्व करता था। यह स्पर्श गुप्तचर होता था। यह दूत विभिन्न राजनैतिक इकाइयों को एक दूसरे के विषय में सूचित करता था। यह पुरप दुर्ग का अधिकारी होता था। सबसे बड़ा अपराध पशु चोरी को माना जाता था।

4. न्याय व्यवस्था :-

विचारकों ने इस काल में विधि या धर्म की सर्वोच्चता की घोषणा ही नहीं की थी, वरन् राजसत्ता द्वारा इसके पालन पर भी जोर दिया था। ऋग्वेद में विधि अथवा व्यवहार के लिए धर्मन् (बाद में धर्म) शब्द का प्रयोग हुआ है। वस्तुतः धर्म के अनेक उपादान आगे जाकर विधि के अंग बन गये। धर्म या विधि के स्वरूप तथा सर्वोच्चता की परिभाषा सामाजिक सन्दर्भ में की गई है, क्योंकि धर्म एवं विधि का मूल मानव समाज है। समाज में व्यक्ति नैसर्गिक रूप में धर्म से अनुप्राणित होकर व्यवस्था बनाये रखता है अथवा दण्ड के भय से व्यवस्था को स्वीकार करता है। इस प्रकारधर्म प्रारम्भ में ऐसे नियमों का संग्रह प्रतीत होता है जिसके अनेक प्रावधानों ने बाद में विधि का स्वरूप ग्रहण कर लिया था और वे प्रावधान प्रारम्भ में समाज की व्यवस्था तथा नैसर्गिक नियमों के द्योतक थे। वेदों की ऋचाओं में पाप और अपराध परस्पर सम्बद्ध दिखाई देते हैं। ऋतु या धर्म के विपरीत किया गया कार्य अपराध माना गया। इस काल में चोरी, सेंधमारी, डकैती एवं पशु अपहरण मुख्य अपराध थे। हत्या का दंड द्रव्य के रूप में दिया जाता था। उच्च श्रेणी के व्यक्ति की हत्या का दड, द्रव्य के रूप में 100 गायों तक लिया जाता था जो मृतक के संबंधियों को प्रदान किया जाता था। वरदेय (बदला चुकाने की प्रथा) का प्रचलन था। शतदाय (100 गायों का दान) सदृश विशेषण का प्रयोग होता था। इसका तात्पर्य यह था कि वह व्यक्ति जिसके जीवन मूल्य की बराबरी 100 गायें करती थीं। दिवालिये को ऋणदाता का दास बनाया जाता था। छोटे-छोटे विवादों का निर्णय ग्राम पंचायत करती थी।

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