मौर्यकालीन कला तथा स्थापत्य (MAURYAN ART AND ARCHITECTURE)
कला मनुष्य की भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम है। किसी भी सभ्यता के सांस्कृतिक विकास का मापदण्ड उसकी कला होती है।
1. कला के दो
वर्ग (Two Groups of Art)-कुमार स्वामी ने मौर्य कालीन कला को दो भागों
में विभाजित किया है:-1)दरबारी
कला (2) लोककला। दरबारी कला अथवा राजकीय कला के अन्तर्गत
राजतक्षकों के द्वारा निर्मित स्मारक मिलते हैं जैसे-राजप्रासाद, स्तंभ, गुफा, विहार आदि । लोक कला के
अन्तर्गत स्वतन्त्र कलाकारों द्वारा लोकरुचि की वस्तुओं का निर्माण किया गया था,
जैसे, यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाएँ, मिट्टी की
मूर्तियां आदि। 2. पाषाण
कला (Rockcut Art)-प्रो. बी. जी. गोखले ने लिखा है कि, “अशोक के काल में सर्वप्रथम भवन निर्माण में लकड़ी के स्थान
पर पत्थर का प्रयोग आरंभ किया गया। इस काल में कला की मूल सामग्री के रूप में बलुये
पत्थर का प्रयोग किया गया और बड़ी दक्षता से उसकी विशालकाय शिलाओं को काटकर
विभिन्न रूपों में ढाला गया और उन्हें चिकना किया गया मानों मौर्य दरबार के वैभव
को प्रतिबिंबित करने के लिए चमक पैदा की गई हो।' इस प्रकार पत्थर को तराशने का कार्य प्रथम बार मौर्य काल में
हुआ। 3. पॉलिश
की विधि (Polishing)-अशोक के शासनकाल में स्तंभों पर पॉलिश करने की विधि भी चरम
सीमा पर पहुंच गई थी। स्तंभों तथा गुफाओं पर एक विशेष प्रकार की चमकीली पॉलिश की
गई है। ये स्तंभ इतने चमकीले हैं कि अनेक विद्वानों ने इन स्तंभों को धातु बना हुआ
समझा है। टोम कोरयट तथ्बा बिटकेर ने भ्रमित होकर इन्हें पीतल के स्तंभ कहा है।
मौर्यकालीन मृद्भाण्डों को काली चमकीली पालिश वाले बर्तन (NBPW) कहा जाता है। मौर्यकालीन कला व स्थापत्य के
विभिन्न कलावशेषों का विवरण इस प्रकार है- (i) नगर निर्माण
(Town Architecture)-मौर्य कालीन राजकीय कला के दर्शन हमें उस काल में बसे नगरों से होते हैं।
मेगस्थनीज ने इंडिका में पाटलिपुत्र के बारे में लिखा है कि यह सोन व गंगा के संगम
पर बसा हुआ था तथा यह पूर्वी भारत का सबसे बड़ा नगर था। पाटलिपुत्र का विवरण
यूनानी लेखकों द्वारा ‘पोलिब्रोथा'
नाम से दिया है। मेगस्थनीज ने लिखा था कि नगर
का निर्माण एक समानान्तर चतुर्भुज के रूप में किया गया था। जिसकी लम्बाई 99 मील (80
स्टेडिया) तथा चौड़ाई 13मील (15 स्टेडिया) थी। नगर की रक्षा के लिए इसके चारों तरफ 600 फीट (6 प्लेथा) से अधिक चौड़ी एवं 30 हाथ (60 फुट) गहरी एक खाई खुदी थी। नगर के चारों तरफ
एक लकड़ी की दीवार बनी हुई थी जिसमें बाण छोड़ने के लिए सुराग बनाए गए थे। नगर
प्रवेश के लिए 64 द्वार बनवाए गए थे एवं 570 बुर्ज थे। खाई के साथ परकोटे का निर्माण पक्की ईंटों से किया गया
था। सम्राट अशोक ने भी अनेक
नगरों की स्थापना की थी। कल्हण की राजतरंगिणी से पता चलता है कि उसने कश्मीर,
श्रीनगर तथा नेपाल में ललितपाटन नामक नगरों का
निर्माण करवाया था। (ii) स्तूप (Stupa)-
‘स्तूप' का शाब्दिक अर्थ ‘ढेर' या 'थूहा'
होता है। ऋग्वेद में उठती हुई ज्वालाओं के लिए
स्तूप' शब्द का उल्लेख किया गया
है। संभवतः अपने मौलिक रूप में स्तूप का संबंध मृतक संस्कार से था तथा महात्मा
बुद्ध के समय से काफी पहले इसका संबंध महापुरुष के साथ जुड़ गया था। संभवतः शवदाह
के पश्चात् बची हुई राख एवं अस्थियों को किसी पात्र में भरकर मिट्टी से ढक देने की
प्रथा से ही स्तूप का जन्म हुआ। कालान्तर में बौद्धों ने इसे अपनी संघ पद्धति में
अपना लिया। इन स्तूपों में महात्मा बुद्ध तथा उनके प्रमुख शिष्यों की धातु रखी
जाती थी अतः वे बौद्धों की श्रद्धा एवं उपासना के प्रमुख केन्द्र बन गये क्योंकि स्तूप चिता के स्थान पर बनाया जाता है इसलिए
इसे चैत्य भी कहते हैं। स्तूप चार प्रकार के होते
हैं: (a) शारीरिक-इनमें बुद्ध तथा प्रमुख शिष्यों के अंग या
अस्थियां रखी जाती हैं। (b) पारिभौगिक-इनमें बुद्ध द्वारा उपयोग में लायी गयी
वस्तुएं रखी जाती थीं। (c) उद्देशिक-ये वे हैं जिन स्थानों का संबंध महात्मा बुद्ध
के जीवन की प्रमुख घटनाओं से था। (d) संकल्पित-बौद्ध तीर्थ-स्थलों पर श्रद्धालुओं द्वारा
स्थापित। (iii) गुफा-विहार
(Rock-cut-vihars) :- अशोक के शासन काल
में वास्तुकला की एक नई शैली का उदय हुआ है। इस शैली में चट्टानों को काटकर गुफाओं
का निर्माण किया गया। इस शैली का अनुकरण अशोक के पौत्र दशरथ तथा बाद के कालों तक
किया गया। अपने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष में
अशोक ने गया के निकट बारबर की पहाड़ियों को
काटकर 'आजीविकों' के लिए चार गुफाओं का निर्माण करवाया। इन
गुफाओं की छतों तथा दीवारों पर चमकीली पालिश की गई। इनमें सुदामा गुफा तथा कर्ण
चौपड़ गुफा प्रसिद्ध है। सुदामा गुफा में दो प्रकोष्ठ हैं। बाहरी कक्ष 32.9 फीट लम्बा तथा 19.5 फीट चौड़ा है। इसके पीछे 19.11 x 19.0 फीट का एक कक्ष है। एक कक्ष गोल व्यास का है जिसकी छत
अर्द्धवृत्त है प्रकोष्ठ का बाहरी मुख मण्डप आयताकार है तथा छत गोलाई लिए है। (iv) स्तंभ (Pillars) :- अशोक द्वारा धम्म
प्रचार के लिए बनवाए गए स्तंभ मौर्य कला के सर्वोत्तम नमूने हैं। इन स्तंभों पर
अशोक ने अपने शासन में धम्म के नियमों को खुदवाकर देश के विभिन्न भागों में
गड़वाया था। इनकी संख्या 20 से अधिक बताई गई
है। फाहियान (399-413 ई.) ने अशोक के 6 तथा ह्वेनसांग (629-645 ई.) ने 12 स्तंभों को देखा
था। देश के विभिन्न भागों से अब तक प्राप्त स्तंभों की संख्या
20 है। ये संकिसा, निग्लीबा, लुम्बिनी, सारनाथ, वैशाली, सांची, रामपुरवा, कोसम प्रयाग, लौरिया, अरराज, मेरठ, लौरिया नन्दगढ़, टोपरा, एरण आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। ये सभी एक ही प्रकार से बने एकाश्मक
हैं l इनको बनाने में दो प्रकार
के बलुआ पत्थर का प्रयोग किया गया है। प्रथम प्रकार का बलुआ पत्थर बनारस के निकट
चुनार की खानों से प्राप्त किया गया था। इनका वजन लगभग 40-50 टन के मध्य है। प्रो. हरिशंकर कौटियाल ने लिखा है कि “चुनार की खानों । पत्थरों को काटकर तराशकर
वर्तमान रूप देना, इन स्तंभों को
देश के विभिन्न भागों में पहुंचाना, शिल्पकला तथा इंजीनियरी कौशल का अनोखा उदाहरण है। प्रत्येक स्तंभ के दो भाग
हैं (a) शीर्षलाट
(b) शीर्षभाग। (v) मूर्तिकला (Sculpture) :- मौर्य काल में भी
मूर्तिकला भी अपने चरमोत्कर्ष पर थी। इस कला के नमूने अशोक के स्तंभों पर अंकित
विभिन्न पशु आकृतियों के रूप में देखे जा सकते हैं। सारनाथ के सिंहों की चर्चा हम
पहले कर चुके हैं। धौली का हाथी भी मूर्तिकला का अच्छा
नमूना है। चट्टान को काटकर एक विशाल हाथी बनाया गया है। हाथी के सूंड, पैर आदि का गठन अत्यन्त स्वाभाविक है। ऐसा
प्रतीत होता है कि यह अपनी सूंड में कोई वस्तु लपेटकर उठा रहा है। कालसी की चट्टान
पर भी उत्कृष्ट हाथी की आकृति खुदी है। (2) लोक कला (Folk Art) (i) मूर्तिकला (Sculpture) :- मौर्य युग के लोक
कलाकारों ने भी अनेक मूर्तियों का निर्माण किया। इनका तत्कालीन, सामाजिक धार्मिक जीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
स्थान था। इन मूर्तियों का निर्माण बिना राज्य संरक्षण में हुआ। लोक कला को
स्थानीय नागरिकों एवं प्रांतपतियों ने संरक्षण दिया। लोक कला के सबसे उत्कृष्ट
नमूने विभिन्न स्थानों से प्राप्त यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियां हैं। कुछ
महत्त्वपूर्ण यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाएँ निम्न स्थानों से प्राप्त हुई हैं-मथुरा जिले
के परखम गांव से मिली यक्ष मूर्ति जिस पर लेख अंकित हैं, इसे मणिभद कहा गया है। मथुरा जिले के ही बड़ोदा गांव से
मिली यक्ष मूर्ति । मथुरा के निकट झींग का-नगरा ग्राम से मिली यक्ष मूर्ति ।
पदमावति से प्राप्त यक्ष मूर्ति, पटना में दीदार
गंज से प्राप्त चांवर गृहिणी यक्ष, प्रतिमा, पटना से प्राण यक्ष मूर्तियां, वेसनगर से प्राप्त यक्षी की मूर्ति, राजघाट के प्राप्त त्रिमूर्ति यक्ष मूर्ति,
विदिशा से प्राप्त यक्ष मूर्ति तथा शिशुपालगढ़
से प्राप्त यक्ष मूर्तियां। इन मूर्तियों की ऊँचाई 8" तक है। आकार में ये भारी भरकम, मांसल, बलिष्ठ एवं कला
की दृष्टि से अनगढ़ हैं। इनके निर्माण में गुलाबी या लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग किया
गया है। इनके सिर पर पगड़ी, कंधों पर भुजाओं
पर उत्तरीय अधोवस्त्र धोती, धारण किए हुए
हैं। ऊपरी भाग नग्न है। कभी-कभी कंधों पर दुपट्टा, गले तिकोना हार, भुजाओं पर अंगद तथा पेट कुछ बढ़ा हुआ है। अधिकांश मूर्तियों के हाथ टूटे
पाटलिपुत्र के खंडहरों से जैन-तीर्थ की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं जो खण्डित हैं तथा
इनके धड़ ही प्राप्त हुए हैं। इन मूर्तियों पर हुए हार, मेखला आदि आभूषण हैं। ii) लेखन कला (Script act) :- मौर्य काल में
लेखन कला का भी विस्तार हुआ यद्यपि इस काल में लेखन कला के प्रमाण केवल में चट्टानों, पाषाण खण्डों, गुफाओं की दीवारों को छोड़ कर अन्य माध्यम पर नहीं मिलते। परन्तु बौद्ध
साक्ष्यों एवं यूनानी लेखकों के गाओं विवरणों से पता चलता है कि इस काल में
ताड़पत्रों पर लिखा जाता था। संभवतः जलवायु संबंधी कारणों से ये ताड़पत्र आज नष्ट
न्यन्त हो गए हैं, परन्तु सिकन्दर
के नाविक सेना के सेनापति निआर्कस ने बताया था कि भारतीय कपड़े पर लिखते थे। मौर्य
काल में होना अधिकांशतः ब्राह्मी लिपि का प्रचलन था, परन्तु उत्तरपश्चिमी भारत में मिलने वाले अभिलेखों की लिपि
खरोष्ठी, अरमाइक तथा यूनानी
लिपियाँ है। संभवतः ब्राह्मी लिपि से ही अन्य लिपियों का उद्भव हुआ था। iii) अन्य लोक
कलाएँ (Other folkarts)-मौर्य काल में संगीत, नृत्य, नाटक, चित्रकारी आदि ललित कलाओं का भी विकास जीव हुआ। मौर्यकालीन अवशेषों में कुछ
मिट्टी की मूर्तियों से नृत्य कला की झलक मिलती है। हाथीदांत की मूर्ति का एक छोटा
भाग बुलन्दी जीक बाग से प्राप्त हुआ है। जिससे पता चलता है कि हाथीदांत का काम भी
इस युग में होता था। यहाँ से एक रथ का पहिया भी प्राप्त हुआ है जो बढ़ईगीरी कला का
साक्ष्य प्रस्तुत करता है। निष्कर्ष:- इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि
मौर्य कला भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। लकड़ी के स्थान पर पत्थर के प्रयोग
ने इस कला को और अधिक स्थायी बना दिया। परन्तु यह कला जन साधारण पर कोई विशेष
प्रभाव नहीं छोड़ सकी, क्योंकि यह लोक
कला न होकर राजकीय कला अधिक थी जिसको सम्राट अशोक का संरक्षण प्राप्त था। आलोचकों
का मानना है कि मौर्य कला ने भारतीय कला के विकास में पत्थर के प्रयोग के अतिरिक्त
कोई और अन्य प्रमुख योगदान नहीं दिया।
कला मनुष्य की भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम
है। किसी भी सभ्यता के सांस्कृतिक विकास का मापदण्ड उसकी कला होती है। कला की
दृष्टि से मौर्य काल का भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्व है। मौर्य काल का वैभव,
आत्मविश्वास और शक्तिशाली राजसत्ता का प्रदर्शन
तत्कालीन कला में झलकता है। इसी कारण अनेक विद्वान भारतीय कला के इतिहास का
प्रारंभ मौर्य काल से मानते हैं। प्रो. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि, “मौर्य काल में भारत कला क्षेत्र में अपनी चरम
सीमा तक पहुंच गया था।" मौर्य मूर्तियाँ, मिट्टी के बर्तन तथा लेखन कला के नमूने शामिल हैं।
अशोककालीन पाषाण स्तंभ तो विशेष उल्लेखनीय हैं जिनके शीर्ष भाग पर विविध
पशु-पक्षियों की आकृतियाँ स्थापित की गई हैं। मौर्यकालीन कला की कुछ विशेषताएँ
निम्नलिखित हैं-
1.दरबारी अथवा राजकीय कला (COURT ART)
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