वन्य प्रदेशों को साफ कर आर्यों ने देश में अपने ग्रामों की स्थापना की थी। इस प्रक्रिया में सम्पूर्ण पंजाब, सैन्धव प्रदेश एवं उत्तरी भारत के बहुसंख्य ग्रामों की स्थापना हुई। ऋग्वैदिक कालीन समाज में ग्राम सबसे छोटी राजनैतिक एवं सामाजिक इकाई थी। इस युग के प्रारम्भिक चरण में आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक अस्थिरता बनी रही। आर्यजनों में संयुक्त परिवार प्रथा थी। एक परिवार में कई सदस्य एक साथ रहते थे एवं कई परिवारों या कबीलों से ग्राम बनते थे। प्रारम्भ में पशुचारण प्रमुख व्यवसाय था। कभी-कभी आर्य कबीले अपने पशुओं के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे और इस तरह ग्राम एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रतिस्थापित होते रहते थे। कबीलाई-संघर्ष के कारण, पराजित समूहों द्वारा विजित सरदारों को कर (बलि) अदायगी करनी पड़ती थी। विजयी कबीले के अन्य सदस्यों को युद्ध में बलपूर्वक प्राप्त किये गये एवं लूट के सामान का हिस्सा (अंश) प्राप्त होता था। आर्यों की इस कबायली व्यवस्था ने उनके जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रभावित किया। ऋग्वैदिक काल में भूमि के व्यक्तिगत स्वामित्व का कोई साक्ष्य नहीं मिलता है। टेसिटस ने इस सन्दर्भ में एक प्रकार के सामुदायिक स्वामित्व का उल्लेख किया है।
1.पशुपालन:-
जनसंख्या
के गतिशील चरित्र
के बारे में
विश शब्द से
भी सूचना मिलती
है, जिसका तात्पर्य
है बस्ती। उनके
भ्रमणशील जीवन के
लिए पशुपालन अधिक
उपयुक्त व्यवसाय था। पशुओं
को लेकर एक
स्थान से दूसरे
स्थान पर जाने
के दौरान, उनका
दस्युओं से संघर्ष
की चर्चा ऋग्वेद
में मिलती है।
आर्य जनों को
अपने कबायली जीवन
से स्थायी आवासों
की स्थापना में
सम्भवत: प्रागायों से संघर्ष
भी करना पड़ा
होगा। कृषि का
भी व्यापक प्रचलन
यद्यपि इस काल
में हो चला
था, तथापि पशुपालन
महत्त्वपूर्ण व्यवसाय बना रहा।
पशुओं से सम्बद्ध
देवताओं में पूषन
नामक देवता का
प्रमुख स्थान था। अनेक
पशुओं से आर्य
लोग परिचित थे,
किन्तु गाय एवं
बैल का विशेष
महत्त्व था। ऋग्वेद
में अनेक भाषागत
अभिव्यक्तियाँ गाय (गौ)
से जुड़ी हैं।
पालतू पशु सम्पन्नता
के प्रतीक थे
और एक सम्पन्न
पालतू पशुओं के
स्वामी को गोमत
कहा जाता था।
इन्हें सम्पत्ति के विशिष्ट
भाग के रूप
में लिया जाता
था। गायों का
सर्वाधिक उल्लेख पशुओं में
हुआ है। गोपाल
की देख-रेख
में गायें गोष्ठ
में चरती थीं।
वह गायों को
गड्डे आदि में
गिरने अथवा चुराये
जाने से रक्षा
करता था। गोपाल
के पास अंकुश
होने का उल्लेख
भी मिलता है।
ऋग्वेद का दशम
मण्डल गौ देवता
एवं गायों की
अभिवृद्धि की कामना
में लिखा गया
है। अनेक स्थलों
पर पशुओं की
चोरी के भी
मिलते हैं एवं
कई राज्यों में
परस्पर युद्ध का कारण
गायों का अपहरण
भी रहा है।
ऐसे युद्धों के
लिए गविष्टि शब्द
का प्रयोग मिलता
है। ऋग्वेद में
पणि शब्द आया
है जिन्हें वैदिक
जनों का शत्रु
माना गया। वे
आर्यों के धन,
एवं जंगलों में
छिपा देते थे।
पशुओं को छुड़ाने
के की जाती
थी। वस्तुत: पशुओं
का अपहरण एक
सामान्य थी। जन
की गायों की
रक्षा करने के
कारण राजा को
गोपति भी कहा
जाता था। इसी
प्रकार दूरी के
लिए गवयतु शब्द
प्रयोग में लाया
जाता था। पुत्री
के लिए दुहिता
शब्द का इस्तेमाल
होता था। समय
की माप के
लिए गोधूलि शब्द
का प्रयोग किया
जाता था। गाय
को पवित्र माना
जाता था औरउसे
अघन्य कहा जाता
था। गोत्र शब्द
की व्युत्पत्ति भी,
गायों को एक
साथ गोष्ट में
रखने के कारण
हुई प्रतीत होती
है।
2. कृषि :-
कृषि, द्वितीयक पेशा इस काल में था। ऋग्वेद के 10462 श्लोकों में केवल 24 में कृषि की चर्चा है। ऋग्वेद में यव और धान्य का उल्लेख है, परन्तु यहाँ धान्य का अर्थ अनाज है। ऋग्वेद में कृष धातु अनेक बार प्रयुक्त हुई है। इससे कृषि की लोकप्रियता का पता चलता है। भूमि हल (सीर) से तैयार की जाती थी जिसे बैल खींचते थे। हल से तैयार की गई भूमि को उर्वरा या क्षेत्र कहा जाता था। भूमि जीतने से बनी हराइयों (सीता) में बीज बोये जाते थे। हल को जोड़ने में आठ से बारह बैलों तक का उपयोग किया जाता था। फसल तैयार होने पर उसे हँसिये (दात्र, सृणि) से काटते थे एवं गट्ठर (वर्ष) बाँधकर ले जाते थे और खलिहान (खल) में एकत्र कर सूप (शूर्प) की सहायता से, अन्न को अलग किये जाने का उल्लेख दसवें मण्डल में मिलता है। अन्न के परिमापन हेतु उपयोग में लाये जाने वाले बर्तन को उर्दर कहा जाता था। ऋग्वेद के प्रथम मंडल में लिखा है कि अश्विन देवताओं ने मनु को हल चलाना और जौ की खेती करना सिखाया।
वर्षा पर ही साधारण कृषक निर्भर करते थे। ऋग्वेद में स्थान-स्थान पर वर्षा के लिए प्रार्थनायें मिलती हैं। आर्यों के प्रारम्भिक सप्त सिन्धु क्षेत्र में वर्षा कम होती थी एवं सतलज, रावी, सिन्धु , घग्गर आदि नदियों की कछारी भूमि में खेती की जाती थी। किन्तु अधिक फसल के लिए सिंचाई की जाती थी। ऋग्वेद से जानकारी मिलती है कि सामान्यतः कुएँ (अवट) के जल से सिंचाई की जाती थी। चक्र के द्वारा पानी निकाला जाता और नालियों या नहरों (कुल्याओं) द्वारा पानी खेत में पहुँचाया जाता था। परवर्ती ग्रन्थों में अनेक प्रकार के धान्यों का वर्णन हुआ है- ब्रीहि, यव, तिल, उड्द (माष), गेहूँ (गोधूम), मसूर, चना आदि। ऋग्वेद में उल्लेख आया है कि अश्विन देवताओं ने मनु को हल चलाना एवं उत्पादन करना सिखाया।
कृषि एवं तटसम्बन्धी उपकरणों के विवरणों से प्रकट होता है की ऋग्वेद कल में कृषि की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। जंगल जलाने के लिए आग का प्रयोग किया जा रहा था और परिवर्तित खेती का प्रयोग प्रारंभ हो गया था। कृषि लोगों की समृद्धि का कारण बन रही थी। एक स्थान पर अपाला अपने पिता की खेती की समृद्धि के लिए प्रार्थना करती है। अन्यत्र पूषन् देवता से हल चलाने की प्रार्थना की गई है। एक स्थान पर सब कुछ हारे हुए जुआरी को यह राय दी जाती है कि वह कृषि कर्म करे जिससे उसे पत्नी, धन एवं पशु की प्राप्ति होगी। भूस्वामित्व व्यक्तिगत सम्पत्ति का आधार नहीं बन पाया था। भूमि सहज ही सुलभ थी और भूमि का अधिग्रहण व्यावसायिक आधार पर था। राजा को भूस्वामी नहीं कहा गया। सम्भवत: सामूहिक भूस्वामित्व रहा होगा।
इस प्रकार ऋग्वेद में एक ही अनाज जौ का उल्लेख है। किन्तु ऋग्वैदिक काल में कृषि कार्य से संबद्ध लोगों को मन्दबुद्धि समझा जाता था। उर्वरा जुते हुए खेत को कहा जाता था। हल के लिए लांगल शब्द का प्रयोग हुआ है। गोबर खाद के लिए करिषु शब्द आता था। कूप के लिए अवल शब्द का प्रयोग होता था। हल से बनी नाली या हल रेखा को सीता कहते हैं। अनाज का कोठार स्थिवि कहलाता था। कीवाश हलवाहा को कहा जाता था। बादल के लिए पर्जन्य और नहर के लिए कुल्या शब्द का प्रयोग होता था। ऋग्वैदिक आर्यों को पाँच ऋतुओं का ज्ञान था। पशुओं में गाय एवं घोड़ों को पवित्र माना जाता था। ऋग्वेद में गाय की चर्चा 176 बार तथा घोड़ों का जिक्र 215 बार किया गया है। हाथियों की चर्चा मिलती है, परन्तु वे पालतू नहीं थे। व्याघ्र की चर्चा ऋग्वेद में नहीं मिलती है। ऋग्वेद में नगर की चर्चा नहीं है, बल्कि पुर की चर्चा हुई है।
3.
वाणिज्य एवं व्यापार :-
वाणिज्य एवं
व्यापार बहुत ही
सीमित था। पणि
नामक अनार्य जो
अपनी कंजूसी के
लिए प्रसिद्ध थे,
वाणिज्य व्यापार से जुड़े
थे। पणि नामक
ये व्यापारी आर्यों
के शत्रु के
रूप में भी
चित्रित किए गये
हैं। इनमे से
कुछ पराजित अनार्य
सरदार पुन: आर्य
व्यवस्था में शामिल
हो गये। उदाहरण
के लिए बलबूथ,
तीरूक्ष आदि। इस
काल में प्रमुख
व्यापारिक वस्तुएँ कपड़ा, चादर
एवं खालें थीं।
ऋग्वेद में व्यापारी
के लिए वणिक
शब्द मिलता है
एवं उसके धनार्जन
के लिए परदेश
जाने की चर्चा
मिलती है। उस
काल में पदार्थों
का आदान-प्रदान
भी होता था।
एक स्थान पर
कहा गया है
कि गायों को
देकर इन्द्र की
प्रतिमा ली गई
थी। अन्यत्र कवि
दान में सौ
अश्वों के साथ
सौ निष्कों की
प्राप्ति का उल्लेख
करता है। कहा
जाता है कि
निष्क कालान्तर में
स्वर्ण मुद्रा में परिणत
हो गया। यद्यपि
क्रय-विक्रय में
वस्तु विनिमय प्रणाली
का प्रचलन था।
गाय मूल्य की
इकाई के रूप
में प्रतिष्ठित हो
चुकी थी। एक
स्थान पर उल्लेख
मिलता है कि
एक व्यक्ति ने
कम मूल्य पर
अधिक वस्तु विक्रय
कर दी, परन्तु
क्रेता के पास
जाकर वह पुन:
कहता है कि
वस्तु विक्रय नहीं
की (अविक्रीत) है
और अधिक मूल्य
चाहता है, किन्तु
इसलिए कि उसने
कम मूल्य पर
अधिक वस्तु दे
दी है वह
मूल्य नहीं बढ़ा
सकता, मूल्य कम
हो या अधिक,
बिक्री के समय
जो तय हो।
उसे ही विक्रेता
एवं क्रता दोनों
को मानना चाहिए।
ऋण देने की
प्रथा भी थी,
इस समय आठवें
और सोलहवें भाग
के रूप में
मूलधन पर ब्याज
लिया जाता था।
4. महत्त्वपूर्ण शिल्प :- आर्य मुख्यतः तीन धातुओं का प्रयोग करते थे- सोना, तांबा और काँसा। अमस् शब्द यहाँ तांबे या काँसे का वाचक है। नारियाँ कपड़े बुनने का कार्य करती थीं। सिरी शब्द का प्रयोग वैसी नारियों के लिए किया जाता था। बढ़ई को तक्षण कहा जाता था और करघा को तसर कहा जाता था। उद्योग धंधे में लकड़ी की कटाई, धातु उद्योग, बुनाई, कुंभकारी और बढ़ईगिरी आदि शिल्प प्रचलित थे। जुलाहे को तंतुवाय कहा जाता था। चर्मन्न चमड़े का काम करने वाले को कहा जाता था। वासोवाय वस्त्र बुनता था। सोना भूमि के अतिरिक्त सिन्धु नदी के तल से प्राप्त किया जाता था इसलिए सिन्धु को हिरण्यवर्तिनी अथवा हिरण्यमयी नाम दिया जाता था।
5. विनिमय प्रणाली :- संभवत: वस्तु विनिमय प्रणाली उस युग में भी प्रचलित रही होगी। यद्यपि विनिमय के रूप में गाय, घोड़े एवं निष्क का उपयोग होता था। निष्क संभवत: स्वर्ण आभूषण होता था या फिर सोने का एक ढेला। जाहिर है कि अभी नियमित सिक्के विकसित नहीं हुए थे। अष्टकर्णी (अष्टकर्मी) नाम से यह विदित होता है कि ऋग्वैदिक आर्यों को संभवत: अंकों की जानकारी थी। ऋण देकर ब्याज लेने वाले को वेकनाट कहा जाता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋग्वेद काल तक भारतीय समाज आर्थिक दृष्टि से विकसित अवस्था को प्राप्त कर चुका था। कृषि एवं पशु पालन आर्यों के महत्त्वपूर्ण व्यवसाय थे किन्तु कई लघु उद्योगों एवं व्यवसायों का आविर्भाव भी देखा जाता है। साथ ही वस्तु विनिमय के अतिरिक्त मुद्रा प्रणाली के रूप में निष्क का प्रादुर्भाव भी हो गया था।
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