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मौर्य युगीन समाज (Social life of Mauryan in hindi)

 

मौर्य युगीन समाज (Social life of Mauryan)

1) वर्णाश्रम व्यवस्था :- किसी भी समाज का मूलाधार पारिवारिक संगठन होता है । मौर्य युग में भी संयुक्त परिवार प्रथा का प्रचलन था । मौर्य युग से पूर्व ही समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था अच्छी तरह स्थापित हो चुकी थी । अशोक के पंचम् शिलालेख से समाज में अनेक वर्णों की विद्यमानता का पता चलता है । चारों वर्गों में ब्राह्मण वर्ण का सर्वाधिक सम्मान था । तृतीय शिलालेख में अशोक कहता है कि ब्राह्मणों एवं श्रमणों की सेवा करना उत्तम है ।

                अर्थशास्त्र में चार वर्णों के अतिरिक्त अनेक वर्णसंकर जातियों का भी उल्लेख अर्थशास्त्र में मिलता है जिनकी उत्पत्ति विभिन्न वर्गों के अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों के कारण हुई। इन वर्णसंकर जातियों के अम्वष्ठ, निषाद, पारशव रथकार, वैदेहक, मागध, सूत पुल्लकस, वेण, चांडाल आदि प्रमुख हैं । कौटिल्य ने चांडालों के अतिरिक्त अन्य सभी वर्णसंकर जातियों को शूद्र की श्रेणी में माना है । इनके अतिरिक्त तुन्नवाय (दर्जी), सुवर्णकार, कर्मार (लुहार) लोहकारू (बढ़ई) तंतुवाय (जुलाहे) एवं रजक (धोबी) आदि व्यवसाय पर आधारित वर्ग जाति का रूप धारण कर चुके थे अशोक के लेखों में दास एवं भृत्य के प्रति सद्व्यवहार के आदेश प्राप्त होते हैं ।

                मेगस्थनीज ने कौटिल्य से भिन्न तत्कालीन भारतीय समाज में सात जातियों का उल्लेख किया है जो उसके अनुसार इस प्रकार हैं- (1) ब्राह्मण एवं दार्शनिक (2) कृषक (3)ग्वाले एवं आखेटक (4)व्यापारी एवं श्रमजीवी (5) योद्धा (6) निरीक्षक (7) मंत्री एवं परामर्श दाता |

2) विवाह :- समाज की उन्नति एवं व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन में सदाचार एवं नैतिकता बनाये रखने के लिये धर्मशास्त्रों में विवाह की अनिवार्यता को स्वीकार किया गया । मौर्य युग में 12 वर्ष की अवस्था की लड़की को तथा 16 वर्ष की अवस्था के लड़के को विवाह योग्य माना जाता था । विवाह सामान्यतया अपने वर्ण अथवा जाति में ही किया जाता था । किन्तु उस समय अन्तर्जातीय विवाह के प्रचलन के प्रमाण भी मिलते हैं । बहु विवाह का भी प्रचलन था |कौटिल्य तथा मेगस्थनीज दोनों ने ही बहु विवाह का उल्लेख किया है | अशोक के शिलालेखों में उसकी दो रानियों का उल्लेख मिलता है | विवाह का मुख्य उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति था |

कौटिल्य ने 8 प्रकार के विवाहों का उल्लेख किया है-

 

(1) ब्रह्मविवाह

 

(2) दैवविवाह

 

(3) आर्ष विवाह

 

(4) प्राजापत्य विवाह

 

(5) गान्धर्व विवाह

 

(6) आसुर विवाह

 

(7) राक्षस विवाह एवं

 

(8) पैशाच विवाह ।

 

3) स्त्रियों की दशा ;- मौर्य युग में स्त्रियों की दशा उन्नत थी । एक ओर उन्हें परिवार की सम्पत्ति में दाय का अधिकार प्राप्त था तो दूसरी ओर उन्हें पुनर्विवाह, नियोग, तलाक आदि का भी अधिकार प्राप्त था । पति द्वारा दुर्व्यवहार करने पर वह न्यायालय की शरण भी ले सकती थी । स्त्री की हत्या को ब्राह्मण हत्या के समान भंयकर पाप माना जाता था । स्त्रियाँ सैन्य शिक्षा भी ग्रहण करती थीं | चन्द्रगुप्त मौर्य के अंगरक्षकों में महिला अंगरक्षिकायें भी नियुक्त थीं । मेगस्थनीज ने लिखा है कि कुछ स्त्रियाँ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर रथों, अश्वों तथा हाथियों पर सवार होती हैं । स्त्रियाँ गुप्तचरों का कार्य भी करती थी परन्तु बहुसंख्यक स्त्रियाँ घरों के अन्दर कार्य करती थी ।

                मौर्य युग में ऐसी स्त्रियों के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं जो वेश्या या रूपजीवा के रूप में अपना जीवन यापन करती थीं ये ललित-कलाओं में प्रवीण होती थीं । राजकीय सेवा में कार्य करने वाली स्त्रियाँ गणिका कहलाती थीं । राजा के मनोरंजन के लिये राजमहल में अनेक गणिकायें हुआ करती थीं । राज्य की ओर से एक अलग विभाग भी स्थापित था उसके अधिकारी को गणिकाध्यक्षकहा जाता था । जो स्त्रियाँ राजकीय सेवा में न रहकर स्वतंत्र रूप से पेशा करती थी उन्हें रूपजीवा (रूप द्वारा आजीविका कमाने वाली) कहा जाता था | इनसे राज्य को पर्याप्त आय होती थी | अर्थशास्त्र में उनके लिये अनेकानेक नियमों का उल्लेख प्राप्त होता है ।

4) दास प्रथा :- मौर्य युग में दास प्रथा का भी प्रचलन था । अशोक के अभिलेखों में दासों सेवकों भृत्यों तथा कई अन्य प्रकार के श्रमजीवियों का उल्लेख मिलता है । अर्थशास्त्र में भी दास प्रथा का विस्तृत वर्णन मिलता है । कौटिल्य की यह स्पष्ट मान्यता थी कि आर्य जाति के लोगों को दास नहीं बनाया जा सकता । कौटिल्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र इन चारों वर्गों को ही आर्य मानता था | उसने म्लेच्छों को दास बनाने की अनुशंसा की । विपत्ति या संकट की स्थिति में आर्य भी दास बन सकता था । कौटिल्य की यह मान्यता थी कि यदि कोई दासता ग्रहण किया हुआ व्यक्ति दासता के बंधन से मुक्त हुये बिना भाग जाये तो उसे आजीवन दास बना रहना होगा । तत्कालीन समाज में दासों के साथ सद्व्यवहार किया जाता था । अर्थशास्त्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दासों से अनुचित कार्य नहीं करवाये जायें । किसी दास को कोई सम्बंधी अथवा स्वयं दास द्वारा अपना मूल्य अदा करने की स्थिति में दासता के बंधन से छुटकारा भी मिल सकता था | दास को अपनी तथा अपने माता पिता की सम्पत्ति का भी अधिकार था । इन सुविधाओं के कारण भारतीय दास, सेवकों अथवा वेतन भोगी नौकरों के समान प्रतीत होते थे । सम्भवत: इसी कारण मेगस्थनीज ने उन्हें पहचानने में भूल की और उसने यह लिखा कि भारतवर्ष में दास प्रथा का प्रचलन नहीं है ।

5) खानपान:- मेगस्थनीज के अनुसार भारतीय मितव्ययी थे इनका आचार-व्यवहार सरल एवं पवित्र था तथा इनका जीवन सुखी था। लोग खाने-पीने के बड़े शौकीन थे । शाकाहार एवं मांसाहार दोनों प्रकार के भोजन का प्रचलन था । अर्थशास्त्र एवं अशोक के शिलालेखों से विदित होता है कि मांसाहार सामान्य रूप से प्रचलन में था | अर्थशास्त्र में मांसपण्या (मांस का विक्रय करने वाले) एवं पक्वमांसिका (पका मांस विक्रय करने वाले) का उल्लेख मिलता है । अशोक के रसोईघर में भी अनेक पशु पक्षियों की हत्या की जाती थी । परन्तु बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद उसने अपने रसोईघर में इन पशु-पक्षियों की हत्या पर्याप्त कम कर दी तथा भविष्य में इसे पूर्णत: बन्द करने का आश्वासन भी दिया । अपने प्रथम शिलालेख में वह कहता है कि उसके रसोई घर में पहले हजारों जीव मारे जाते थे किन्तु अब तीन जीव-दो मोर एक हरिण मारे जायेंगे तथा भविष्य में इन्हें भी नहीं मारा जायेगा | मांस के साथ-साथ मदिरापान का प्रचलन था |

6) वस्त्राभूषण :- मौर्य युग में लोग अपने शरीर को ढकने एवं अलंकृत करने के लिये विविध प्रकार के वस्त्राभूषणों का प्रयोग करते थे। इस समय वस्त्र व्यवसाय पर्याप्त उन्नत अवस्था में था । रेशम, ऊन, कपास, सन तथा विभिन्न रेशों से वस्त्र तैयार किये जाते थे । अर्थशास्त्र में तुन्नवाय (दर्जी) का उल्लेख प्राप्त होता है । विविध प्रकार के कम्बलों का वर्णन भी अर्थशास्त्र में हुआ है । पाटलीपुत्र से प्राप्त मृणमूर्ति एवं यक्षी प्रतिमा से स्त्रियों द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों का अनुमान लगाया जा सकता है । मृणमूर्ति में बालिका को जहाँ चौड़ा लहँगा पहने हुये दर्शाया गया है वहीं यक्षी को साड़ी या धोती पहने हुये दिखाया गया है । मौर्य युग में जहाँ एक ओर विविध प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग किया जाता था वहीं नानाविध आभूषणों को भी लोग अपने शरीर पर धारण करते थे । आभूषण स्वर्ण, मणि एवं मुक्ता द्वारा तैयार किये जाते थे । अर्थशास्त्र में प्रसाधन के साधनों में चूर्ण (पाउडर), अनुलेपन (मलने वाली क्रिम) आदि का भी उल्लेख प्राप्त होता है ।

7) मनोरंजन :- आमोद प्रमोद के अनेक साधन इस युग में प्रचलित थे । अर्थशास्त्र में ऐसे अनेक लोगों का उल्लेख मिलता है जिनका व्यवसाय लोगों का मनोरंजन करना था जैसे- नट (नाटक करने वाले), नर्तक (नाचने वाले), गायक (गाने वाले), वादक (बाजा बजाने वाले), वाग्जीवी (विभिन्न प्रकार की बोली बोलने वाले), सौभिक (मदारी), प्लवक (रस्से पर नाचने वाले), एवं चारण (यश गान करने वाले) इत्यादि । अशोक के अभिलेखों में विहार यात्राओं एवं समाज का उल्लेख प्राप्त होता है इनमें शिकार, मल्ल युद्ध, नृत्य, संगीत, घुडदौड़ एवं हाथियों की दौड़ होती थी । लेकिन मनुष्यों एवं पशुओं के मल्लयुद्ध में अत्यधिक हिंसा होने के कारण अशोक ने विहार यात्राओं एवं समाज पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इनके स्थान पर धर्मयात्रायें प्रारम्भ की । द्यूत क्रीड़ा का भी प्रचलन था | यूत क्रीड़ा गृहों पर राज्य का नियंत्रण था तथा इन पर शुल्क लगता था | प्रेक्षागृहों में अभिनय से भी जनता का मनोरंजन होता था |

 

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