Subscribe Us

कनिष्क या कुषाण के समय का कला तथा स्थापत्य (KANISHKA ART AND ARCHITECTURE in hindi)

कनिष्क  या कुषाण के समय का कला तथा स्थापत्य (KANISHKA ART AND ARCHITECTURE)

Content

कनिष्क के समय का साहित्य  (LITERATURE UNDER KANISHKA)

कनिष्क तथा कला (KANISHKA AND ART)

                * गांधार कला  

            * मथुरा कला

वास्तुकला (ARCHITECTURE)

मुद्राकला (COINAGE)

कनिष्क के समय का साहित्य  (LITERATURE UNDER KANISHKA)

डॉ. डी. सी. सरकार ने लिखा है कि, “कनिष्क साहित्य एवं कला का प्रश्रयदाता था। कनिष्क भारतीय इतिहास का एक महान विद्या प्रेमी सम्राट था। उसने अपनी राजसभा में अनेक विद्वानों को संरक्षण दिया। उसके दरबार में अनेक प्रसिद्ध विद्वान, लेखक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक थे। इस संबंध में डॉ. आर. एस. त्रिपाठी लिखते हैं कि, “कनिष्क का दरबार प्रतिभावान् तथा प्रतिष्ठित विद्वान मण्डली एवं बौद्ध नेताओं से सुशोभित था। नागार्जुन, अश्वघोष, पार्श्व, चरक, वसुमित्र, आर्यदेव, माठर, अगिशल आदि कनिष्क के दरबार की शोभा बढ़ाते थे। इन सभी विद्वानों ने विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिखीं। इस संबंध में एच.जी. रालिन्सन ने लिखा है कि, "साहित्य के अभिनव स्वरूप प्रकाश में आते हैं, महाकाव्य तथा नाटक अपना रूप दिखाते हैं तथा साहित्यिक संस्कृति का विकास होता है।" कनिष्क के समय के विभिन्न विद्वानों का विवरण इस प्रकार है:

1. अश्वघोष (Ashvaghosh)-अश्वघोष कनिष्क के समय का सबसे प्रसिद्ध विद्वान् था। उसमें कवि, दार्शनिक, नाटककार, संगीतकार आदि के सभी गुण विद्यमान थे। वह कुषाण युग की साहित्यिक प्रगति का अग्रदूत था। उसने अपने महाकाव्य बुद्धचरित' में उल्लासपूर्ण एवं शृंगारमय पक्ष का वर्णन किया है। अश्वघोष की प्रसिद्ध रचनाओं में 'बुद्धचरित' का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। यह उनका महाकाव्य है जिसकी तुलना प्रायः वाल्मीकि रामायण से की जाती है। सातवीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री इत्सिंग ने इस काव्य की अत्यन्त प्रशंसा की थी। बौद्धों के लिए यह पुस्तक आज भी महत्त्वपूर्ण हैसौन्दारानन्द' अश्वघोष का दूसरा महाकाव्य है अश्वघोष का नाटककार के नाते तीन नाटकों की रचना की थी। शारिपुत्रप्रकरण उनका सर्वश्रेष्ठ नाटक है। नौ अंकों में बंटा हुआ यह नाटक  संस्कृत साहित्य का सबसे प्राचीन उपलब्ध नाटक है। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त अश्वघोष ने वज्रसूची तथा सूत्रालंकार नामक ग्रन्थों की भी रचना की थी।

2. नागार्जुन (Nagarjun)-नागार्जुन कनिष्क के समय का एक प्रसिद्ध दार्शनिक था। उसका जन्म विदर्भ एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था परन्तु वह बाद में बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया था। हेनसांग ने नागार्जुन को बौद्ध धर्म के संसार को सूर्य के समान प्रकाश देने वाले चार प्रसिद्ध विद्वानों (आर्यदेव, अश्वघोष, नागार्जुन, कुमारलब्ध) में रखा है। नागार्जुन ने लगभग बीस ग्रन्थों की रचना की, परन्तु 'माध्यमिक सूत्र तथा सुहल्लेखा' उसके दो प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। उसने अपनी पुस्तक 'माध्यमिक सूत्र' में शून्यवाद तथा सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity) का प्रतिपादन किया था। उसने भारत का आइन्स्टाईन (Indian Einstain) भी कहा जाता है। महायान धर्म पर लिखने वाला वह बौद्ध धर्म का प्रथम विद्वान् था।

3. वसुमित्र (Vasumitra)-नागार्जुन के अतिरिक्त वसुमित्र भी कनिष्क के दरबार का प्रसिद्ध दार्शनिक था। कश्मीर में होने वाली बौद्धों को चौथी महासभा का अध्यक्ष वही था। वसुमित्र की ही अध्यक्षता में बौद्ध धर्म के विश्वकोष महाविभाष का संकलन हुआ था।

4. चरक (Charak)-चरक को कनिष्क का राजवैद्य माना जाता है। उसने चिकित्सा शास्त्र पर अपना महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'चरक संहिता' लिखा। इस ग्रन्थ का महत्त्व इस बात से लगाया जा सकता है कि आज से बहुत पहले इस ग्रन्थ का अरबी एवं फारसी में अनुवाद किया गया था। चिकित्सा विज्ञान में चरक के सिद्धांत आज भी महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।

5. अन्य विद्वान् (Other Scholars)-कनिष्क के दरबार में अन्य विद्वानों में कनिष्क के गुरु पार्श्व थे। कनिष्क का मंत्री माठर भी एक प्रकाण्ड विद्वान् था। कनिष्क का इंजीनियर एक यूनानी अगिशल था। आर्यदेव भी कनिष्क की विद्ववत सभा के सदस्य थे यद्यपि उनका जन्म श्रीलंका में हुआ था परन्तु बौद्ध धर्मानुराग उन्हें भारत खींच लाया था। इस प्रकार संस्कृत साहित्य की कनिष्क के शासन काल में अत्यधिक उन्नति हुई। इस संबंध में डॉ. राय चौधरी ने लिखा है कि, “कुषाण युग साहित्यिक क्रियाशीलता का युग था, इसका प्रभाव हमें अश्वघोष, नागार्जुन तथा अन्य विद्वानों की कृतियों से प्राप्त होता है।

कनिष्क तथा कला (KANISHKA AND ART)

कनिष्क एक विजेता ही नहीं, बल्कि एक महान निर्माता भी था। उसके शासनकाल में कला की विभिन्न शैलियों का उत्कर्ष हुआ। इस समय मूर्तिकला, स्थापत्य कला तथा तक्षण कला का विकास हुआ तथा इनके चार विभिन्न केन्द्र-सारनाथ, मथुरा, अमरावती। व गांधार स्थापित हुए। क्रिसमस हम्फी ने लिखा है कि, "कला पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ा, क्योंकि पूजा की भावना से उन उच्चतर भावों को अभिव्यक्ति प्रदान की जिनमें समस्त महती कला के मूल पाए जाते हैं। इस काल की विभिन्न कला शैलियों का विवरण के इस प्रकार है-

1. गांधार कला  :- गांधार कला से तात्पर्य एक विशिष्ट शैली से है जिसका विकास ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी में गांधार तथा उसके निकटवर्ती प्रदेशों में हुआ था। गान्धार प्रदेश जो उत्तर-पश्चिम भारत में स्थित था काफी समय से यूनानियों के आधिपत्य में था। इसलिए भारतीयों व यूनानियों के आपसी सम्पर्क के कारण कला के क्षेत्र में एक नई शैली का उद्भव हुआ जो हिन्दू-यूनानी कला शैली या गांधार कला शैली कहलाई। इस शैली में विषय, विचार और भाव तो भारतीय थे, परन्तु शैली का मूल रूप यूनानी शिल्प विद्या थी। महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित होने के कारण इसे ग्रीको बुद्धिस्ट भी कहा जाता है।

गांधार कला का विषय (Subject of Ghandhar Art)- इस कला का विषय महात्मा बुद्ध तथा उनके जीवन से संबंधित घटनाएँ हैं जिसे मूर्तियों द्वारा प्रकट किया गया है। बुद्ध के अतिरिक्त अन्य बोधिसत्वों एवं कुछ देवी-देवताओं की मूर्तियां भी बनाई गईं। इस शैली में महात्मा बुद्ध की जो मूर्तियां निर्मित की गई हैं, वे यूनानी देवता अपोलो (Apolo) की मूर्तियों से काफी समानता रखती है। कमलासन पर बैठे बुद्ध की मूर्तियों के मुखमण्डल और वस्त्रों में यूनानी अथवा रोमन कला का प्रभाव झलकता है। प्रयोग में लाया गया सामान (Material used)-इस कला शैली में मूर्तियां बनाने के लिए काले स्लेटी पत्थर, भूरे पत्थर, चूने तथा पकी मिट्टी का प्रयोग किया गया है। इस कला शैली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

i) इस कला में पहली बार महात्मा बुद्ध की मूर्तियां बनाई गईं। इससे पहले महात्मा बुद्ध के अस्तित्व को चिह्नों (Sings) द्वारा प्रदर्शित किया जाता था। जैसे वटवृक्ष, छतरी इत्यादि।

ii) इस शैली में मानव शरीर के यथार्थ चित्रण की तरफ ध्यान दिया गया है। मांसपेशियों, मूछों, लहरदार बालों का अति सूक्ष्म ढंग से प्रदर्शन हुआ l

(iii) महात्मा बुद्ध की वेश-भूषा यूनानी दिखाई गई है तथा उनके पैरों में जूते दिखाए गए हैं।

(iv) मूर्तियों को सुन्दर बनाने के लिए शरीर को अत्यन्त सटे अंग-प्रत्यंग दिखाने वाले झीने वस्त्रों एवं आभूषणों का अंकन किया गया है।

v) इन मूर्तियों में बना आभामण्डल सादा तथा अलंकरण रहित है।

(vi) महात्मा बुद्ध के सिर पर धुंघराले बाल दिखाये गये हैं।

(vii) इस शैली की मूर्तियों में महात्मा बुद्ध को यूनानी देवता अपोलो की तरफ का दिखाया गया है।

(vi) बुद्ध तथा बोधिसत्वों के अतिरिक्त गांधार शैली की कुछ मूर्तियों में देवी मूर्तियां भी मिलती हैं। इनमें हारीति तथा रोमा देवियों की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं।

(ix) इस शैली के शिल्पकारों में कामोत्तेजक मूर्तियां नहीं बनायी हैं।

गांधार कला का प्रभाव (Effect of Gandhar Art)-गांधार कला शैली की मूर्तियों में आध्यात्मिकता तथा भावुकता न होकर बौद्धिकता एवं शारीरिक सौन्दर्य की ही प्रधानता है। अपने यूनानी स्वरूप के कारण ये भारतीय कला की मुख्य धारा से अलग रही तथा इसने जैसा कि जान मार्शल ने माना भारतीय कला को विशेष प्रभावित नहीं किया परन्तु भारत के बाहर गांधार कला का व्यापक प्रभाव रहा। इसने चीन, कोरिया, जापान तथा चीनी तुर्किस्तान की बौद्ध कला को जन्म दिया।

2. मथुरा कला (Mathura Art)- कुषाण काल में मथुरा भी कला का प्रमुख केन्द्र था। जहां अनेक स्तूपों, विहारों एवं मूर्तियाँ का निर्माण करवाया गया। मथुरा में जिस शैली का विकास हुआ उसे मथुरा शैली के नाम से पुकारा गया। कुषाण काल से प्रगति मूर्तिकला शैली को मथुरा शैली का ही विकसित रूप माना गया है। इस कला की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

i) इस शैली में मूर्तियां विशुद्ध भारतीय परंपरा के आधार पर बनाई जाती थी।

(ii) मूर्तियों के निर्माण में लाल पत्थर का प्रयोग किया गया है जो सीकरी नामक स्थान से प्राप्त होता था।

(iii) मथुरा ब्राह्मण, जैन तथा बौद्ध तीनों धर्मो का केन्द्र था। अतः यहाँ की कला में तीनों धर्मों का प्रभाव है।

(iv) इस कला शैली में महात्मा बुद्ध को सदा सिंहासन पर बैठे दिखाया गया है।

v) महात्मा बुद्ध के सिर के पास बना आभामण्डल पूर्णतया अलंकृत है।

(vi) इस शैली में महात्मा बुद्ध की मूछे नहीं दिखाई गई है।

(vii) इस शैली की मूर्तियों में महात्मा बुद्ध का दायां हाथ अभयमुद्रा में तथा बायां हाथ जांघ से लगा हुआ दिखाया गया है।

(vii) मथुरा कला की जैन मूर्तियों को नग्न दिखाया गया है। कुछ नग्न स्त्री-पुरुषों की मूर्तियां भी इस शैली में मिलती हैं।

मथुरा के अजायबघर में सुरक्षित सम्राट कनिष्क की मूर्ति, बनारस के अजायबघर में हाथ में शृंगारदान लिये एक दासी की मूर्ति तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्रों से प्राप्त यक्ष-यक्षणियों तथा स्त्री-पुरुषों व बुद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियां इस कला शैली के सुन्दर नमूने हैं।

वास्तुकला (ARCHITECTURE)

कनिष्क के शासन काल में वास्तुकला के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई। कनिष्क के समय में अनेक स्तूपों एवं विहारों का निर्माण हुआ। कनिष्क ने अपनी राजधानी पुरुषपुर में 400 फीट ऊंचा 13 मंजिलों का एक स्तूप बनवाया। यह लकड़ी से बना था तथा इसके ऊपर एक विशाल लोहे का छत्र था। इसके पास ही कनिष्क ने एक विशाल विहार (संघाराम) का निर्माण भी करवाया। यह संघाराम 'कनिष्क चैत्य' के नाम से प्रसिद्ध था। फाहियान तथा ह्वेनसांग दोनों यात्रियों ने इस विहार की प्रशंसा की है। यह चैत्य शाहजी की ढेरी' के नाम से भी प्रसिद्ध है। इसका निर्माण यूनानी इंजीनियर अगिलस द्वारा किया गया था। कनिष्क ने अशोक की भांति कई नगरों का भी निर्माण करवाया। उसने तक्षशिला के निकट सिरकप नामक स्थान पर तथा कश्मीर में निष्कपुर नामक नगरों का निर्माण करवाया। उसने पेशावर के साथ-साथ मथुरा में भी भव्य भवनों का निर्माण करवाया। कनिष्क की इन कलाकृतियों के कारण इतिहासकार बी.ए. स्मिथ ने कनिष्क को एक महान् निर्माता बताया है।

मुद्राकला (COINAGE)

कनिष्क के काल में सिक्के बनाने की कला में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। कुषाणों को रोमन साम्राज्य के साथ उन्नत व्यापार था, इसलिए रोमन साम्राज्य से काफी मात्रा में सोना भारत आता था जिससे कुषाण सम्राटों ने अनेक प्रकार के सिक्के प्रचलित किए। इनका प्रारम्भ विम कैडफिसिस के काल में हुआ तथा कनिष्क के आते-आते भारी मात्रा में स्वर्ण मुद्राओं का निर्माण होने लगा। ये सिक्के शुद्धता की दृष्टि से उत्कृष्ट थे। इन सिक्कों पर महात्मा बुद्ध एवं कनिष्क की आकृतियां मिलती हैं। ये सिक्के एक निश्चित तोल के तथा आकर्षक एवं सुन्दर हैं। गुप्त शासकों ने इन्हीं सिक्कों का अनुकरण करके सिक्के चलाये थे।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ