मौर्य युगीन अर्थव्यवस्था (Economy of Mauryan)
1) कृषि :- भारतवर्ष प्रारम्भ से ही कृषि प्रधान देश रहा है । कृषक
समाज पवित्र एवं अवध्य माना जाता था । मेगस्थनीज ने लिखा है कि युद्ध के समय शत्रु
द्वारा कृषकों को कोई हानि नहीं पहुँचायी जाती थी क्योंकि किसान वर्ग को
सर्वसाधारण द्वारा हितकारी माना जाता है । मौर्ययुग में कृषि योग्य भूमि दो प्रकार
की थी – सीता एवं करद । सीता
राजकीय भूमि थी । इस पर खेती ‘सीताध्यक्ष
द्वारा करायी जाती थी जबकि ‘करद’ भूमि पर करद (भाग देने वाले) कृषक खेती करते थे
। अर्थशास्त्र में कृष्ट (जुती हुई, अकृष्ट (बिना जुती हुई, स्थल (ऊँची) आदि
भूमियों का उल्लेख भी प्राप्त होता है । खेती हल एवं बैलों की सहायता से होती थी ।
शालि (धान), ब्रीहि (चावल),
कोद्रव (कोदो का धान) तिल,
प्रियंगु (कंगनी चावल),
दारक (दाल), वरक (मोंठ), मुदग (मूंग), माष (उडद), मसूर, कुलत्थ (कुल्थी),
यव (जौ), गोधूम (गेहू), कलाय (चना), अतसी (अलसी), सर्षप (सरसो),
इक्षु (ईख), एवं कार्पास (कपास) आदि की खेती की जाती थी । अच्छी फसल के लिये बीजों को किस
प्रकार तैयार किया जाये एवं खेतों में किस फसल में कौनसी खाद डाली जाये इसका विशद
विवेचन अर्थशास्त्र में उल्लिखित है । यद्यपि मौर्य युग में कृषि वर्षा पर निर्भर थी फिर भी मौर्य शासकों ने सिंचाई
की व्यवस्था की ओर पर्याप्त ध्यान दिया। राज्य की ओर से तालाबों, कुओं
तथा झीलों पर बांध निर्मित करवाकर
पानी को एक स्थान पर एकत्रित किया जाता था। इस व्यवस्था को सेतुबन्ध कहा जाता था ।
मौर्य युग में सेतुबन्ध के निर्माण को सर्वोत्तम उदाहरण की जानकारी जूनागढ़ अभिलेख से मिलती है लेख से विदित होता
है कि चन्द्रगुप्त के गवर्नर पुष्यगुप्त द्वारा
सौराष्ट्र में सुदर्शन झील का निर्माण करवाया गया, तथा अशोक के समय तुषास्फ ने इसमें से कई नहरों
का निर्माण करवाया । अर्थशास्त्र में सिंचाई के अनेक साधनों का उल्लेख मिलता है
जिनमें नदी, सर, तडाक, कूप, रहट, चरस, आदि प्रमुख हैं | कृषकों को उपज का एक भाग कर के रूप में देना पडता था जो 1/4
भाग तक हो सकता था | इसे ‘भोग’ कहा जाता था |
राज्य की भूमि की व्यवस्था ‘सीताध्यक्ष’ द्वारा होती थी
तथा उससे होने वाली आय को ‘सीता’ कहा जाता था |
राजस्व एकत्रित करने के लिये राज्य की ओर से
अनेक अधिकारी नियुक्त थे । 2) पशुपालन :- कृषि एवं पशुपालन में घनिष्ट सम्बन्ध होता है । एक ओर जहाँ
पशुओं से घी,
दूध, दही, एवं
मांस की प्राप्ति होती थी
वहीं दूसरी ओर कृषि में बैलों तथा युद्ध में हाथियों एवं घोडों का महत्वपूर्ण
स्थान होता था । अर्थशास्त्र में अलग से पशुविभाग की स्थापना का उल्लेख प्राप्त
होता है चरागाहों का विकास एवं उनकी सुरक्षा पशुओं की चिकित्सा एवं पशु हिंसा को
रोकना आदि इस विभाग के प्रमुख कार्य थे । अर्थशास्त्र में गो अध्यक्ष (गाय,
भैस तथा दूध देने वाले पशुओं की जानकारी रखने
वाला), गोपालक (गाय पालने वाले), पिण्डारक (भैंस पालने वाले), दोहक (दूध दुहने वाले), मंथक (दही मथने वाले), लुब्धक (हिंसक पशुओं से गाय-भैस की रक्षा करने वाले) आदि
कर्मचारियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं । अर्थशास्त्र में उपर्युक्त कर्मचारियों
को नकद वेतन अथवा भोजन एवं वस्त्र देने का प्रावधान है, क्योंकि कौटिल्य की यह मान्यता थी कि यदि इन कर्मचारियों को
दूध, दही या मृत में से किसी
प्रकार का हिस्सा दिया गया तो वे बछड़ों को भूखा मार सकते थे । दूध देने वाले
पशुओं के अतिरिक्त अन्य पशुओं में अश्व एवं हाथी का महत्वपूर्ण स्थान था । इन
दोनों ही पशुओं का महत्व सैनिक दृष्टिकोण से था । अर्थशास्त्र में ‘अश्वाध्यक्ष’ एवं हस्ताध्यक्ष का उल्लेख प्राप्त होता है । पशुओं की
चिकित्सा की पूर्ण व्यवस्था राज्य की ओर से की जाती थी स्वयं अशोक ने न केवल
द्विपद (मनुष्य) अपितु चतुष्पद (जानवरों) की चिकित्सा का समुचित प्रबन्ध किया था । 3) उद्योग-धन्धे :- यद्यपि मौर्य युग में कृषि जनता का प्रमुख व्यवसाय था
किन्तु कृषि एवं पशुपालन के साथ-साथ अन्य अनेक व्यवसाय एवं उद्योग भी उन्नत अवस्था
में थे । मेगस्थनीज ने अपने वर्णन में लिखा है कि ‘वे कला-कौशल में बड़े निपुण है । अर्थशास्त्र एवं मेगस्थनीज
के वर्णन से मौर्ययुगीन विविध उद्योगों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है वस्त्र उद्योग उस समय के प्रधान उद्योगों में से एक
था । वस्त्र उद्योग पर राजकीय नियंत्रण था ।
अर्थशास्त्र में इस विभाग के अध्यक्ष को ‘सूत्राध्यक्ष कहा गया है । उर्णा (ऊन), वल्क (रेशे), कार्पस (कपास), तूल (रेशेदार
पौधा), शण (सन) एवं क्षेम (रेशम)
से सूत काता जाता था । विधवा, विकलांग, कन्या, प्रव्रजिता, कैदियों वृद्ध
वेश्याओं तथा वृद्ध दासियों से सूत कतवाया जाता था । अनेक शिल्पी भी सूत कातने का
कार्य करते थे । काशी, वत्स, अपरान्त बंग एवं मदुरा सूती वस्त्र उद्योग के
महत्वपूर्ण केन्द्र थे । सन से निर्मित वस्त्र काशी एवं मगध के अच्छे माने जाते थे
। मलमल बंगाल का प्रसिद्ध था । मगध, पुण्ड एवं सुवणकुडय छाल तथा रेशों के वस्त्रों
के लिये प्रसिद्ध थे । नेपाल के ऊनी वस्त्र प्रसिद्ध थे । अर्थशास्त्र में चीनपट्ट
का उल्लेख है । ऐसा लगता है चीन से रेशमी वस्त्र आयात किया जाता था । खनन एवं धातु कर्म दूसरा अन्य महत्वपूर्ण उद्योग था । इससे राज्य
को पर्याप्त आय होती थी । अर्थशास्त्र में खान एवं खान से उत्पन्न होने वाले समस्त
पदार्थों पर राज्य के अधिकार की बात कही गई है । साथ ही कुछ खानों को पट्टे पर भी
देने का उल्लेख है । अर्थशास्त्र में खनन उद्योगों के प्रबन्ध अधिकारी को ‘आकराध्यक्ष’ कहा गया है |
उसकी सहायता के लिये खन्यध्यक्ष, लोहाध्यक्ष, लक्षणाध्यक्ष एवं लवणाध्यक्ष आदि अधिकारी होते थे ।
अर्थशास्त्र में विभिन्न प्रकार के धातुओं की खानों के अलग-अलग लक्षणों का उल्लेख
है । इन लक्षणों के आधार पर स्वर्ण, रजत, ताम्र शीशा तथा लौह तथा
अन्य प्रकार की धातुओं की खानों का पता लगाया जा सकता था । खानों से प्राप्त होने
वाले धातुओं एवं पदार्थो का संग्रह, उनका परिष्कार, निर्माण एवं क्रय
विक्रय की व्यवस्था राज्य का कर्तव्य था । मौर्ययुगीन उद्योगों में सुरा उद्योग का भी महत्वपूर्ण स्थान था | यह उद्योग ‘सुराध्यक्ष के नियंत्रण में था | सुरा बनाने का कार्य सुरा के जानकार एव अनुभवी व्यक्ति को
ही दिया जाता था । अन्य कोई व्यक्ति यदि सुरा बनाता तथा उसका क्रय-विक्रय करता तो
उसे दण्डित किया जाता था । राज्य की ओर से सुरापान के लिये स्थानों की व्यवस्था की
जाती थी। इन उद्योगों के अतिरिक्त कई अन्य उद्योग भी
मौर्यकाल में उन्नत अवस्था में थे जिनमें काष्ठ शिल्प, चमड़ा
उद्योग, रत्नाभूषण उद्योग, मृदभाण्ड
कला आदि प्रमुख हैं । साथ ही
प्रस्तर तराशने का व्यवसाय भी विकसित अवस्था में था। अशोक के समय प्रस्तर (एकाश्म)
से निर्मित स्तम्भ इसके महत्वपूर्ण प्रमाण हैं । प्रस्तर पॉलिश का काम भी इस समय
चरमोत्कर्ष पर था । इन विविध उद्योगों में काम करने वाले शिल्पी विभिन्न अध्यक्षों
के अधीन कार्य करते थे तथा राज्य से वेतन पाते थे । किन्तु अनेक स्वतंत्र शिल्पी
भी थे जो श्रेणियों में संगठित थे । 4) व्यापार एवं वाणिज्य
:- मौर्य शासन में अखिल भारतीय साम्राज्य होने के
कारण व्यापार-वाणिज्य को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला । मौर्य युग में अन्तर्देशीय (आन्तरिक) एवं परदेशीय (बाह्य) दोनों प्रकार का
व्यापार उन्नत अवस्था में था । अन्तर्देशीय व्यापार स्थल मार्ग एवं जल मार्ग दोनों
ही मार्गों से होता था । सम्पूर्ण व्यापार ‘पण्याध्यक्ष’ के नियंत्रण में
होता था | मौर्य युग में चार
राजमार्ग प्रमुख थे जो पाटलीपुत्र से चारों दिशाओं में जाते थे । ये चारों मार्ग
जहाँ व्यापार के लिये उपयोगी थे वहीं सैन्य दृष्टि से भी इनका पर्याप्त महत्व था ।
अशोक द्वारा यात्रियों की सुविधार्थ राजमार्गों पर वृक्ष
लगवाने, कुए खुदवाने तथा सरायों के निर्माण का उल्लेख उसके अभिलेखों में प्राप्त होता है |
मेगस्थनीज के अनुसार मार्गों पर मार्ग सूचक एवं
दूरी के परिचायक चिह्न बने हुये होते थे । अन्तर्देशीय व्यापार स्थल मार्ग के साथ-साथ नदी
मार्ग से नौकाओं के माध्यम से भी किया जाता था । सम्पूर्ण देश में वस्तुयें
व्यापारियों द्वारा राज्य के एक भाग से दूसरे भाग में पहुँचाई जाती थी | कश्मीर, कौशल
एवं कलिंग से हीरा, काशी से विभिन्न
प्रकार के वस्त्र, मगध एवं सुवर्णकुड्य
से रेशों से निर्मित वस्त्र, बंगाल से मलमल, नेपाल से ऊनी वस्त्र, दक्षिण भारत से चन्दन, बलख से अश्व, पाण्ड्य केरल ताम्रपर्णि से मोती आदि, देश के एक भाग से दूसरे भाग में पहुँचाये जाते
थे तथा विदेशी व्यापारी भी बड़ी संख्या में माल क्रय करने आते थे मौर्ययुग से
मुगलकाल तक बिना मुद्रा (पासपोर्ट) के कोई
यात्रा नहीं कर सकता था | इस समय परदेशीय व्यापार भी उन्नत अवस्था में था । पश्चिमी देशों के साथ
जलमार्ग द्वारा व्यापार के लिये भारत के समुद्रतट पर मुजिरिस
नामक बन्दरगाह था | इस समय भारत एवं
मिस्र के मध्य होने वाला व्यापार भी उन्नत अवस्था में था । भारत से हाथीदाँत,
सीपियाँ, मोती, रंग, नील, बहुमूल्य
लकड़ी एवं मसाले आदि निर्यात किये
जाते थे । चीन से रेशमी वस्त्र (चीन पट्ट), फारस
(ईरान) से कार्दमिक मुक्ता दही मांग भारत में पर्याप्त मात्रा में थी | 5) मुद्रा :- अर्थशास्त्र में अनेक प्रकार की मुद्राओं का उल्लेख है जो
मौर्यकाल में प्रचलित थीं, जिनमें सुवर्ण (स्वर्ण मुद्रा), कार्षापण या पण या धरण
(रजत मुद्रा) माषक एवं काकणी (ताम्रमुद्रा),
आदि प्रमुख हैं । उत्खनन में भारी मात्रा मे आहत (पंचमार्क) सिक्के भी प्राप्त हुये हैं । रजत
एवं ताम्र धातु के इन सिक्कों के कुछ समूहों को मौर्ययुग से सम्बन्धित माना गया
है। मौर्य युग में अनेक नगर जहाँ प्रशासन के महत्वपूर्ण केन्द्र थे वहीं वे
व्यापार एवं वाणिज्य के भी महत्वपूर्ण केन्द्र बन चुके थे । अत: मौर्य युग में
मुद्रा आम उपयोग की चीज हो गई । व्यापार में मुद्रा अर्थ व्यवस्था की उपयोगिता
स्वयं सिद्ध है | मौर्ययुगीन आहत
सिक्के इस बात के प्रमाण हैं कि मौर्य युग में मुद्रा अर्थव्यवस्था सुव्यवस्थित
रूप से लागू थी ।
मौर्ययुगीन अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन उद्योग
एवं व्यापार तथा वाणिज्य पर निर्भर थी । इन्हें सामूहिक रूप से वार्ता (वृत्ति का
साधन) कहा गया ।
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