अशोक का धम्म (THE DHAMMA OR DHARMA OF ASHOKA)
Content धम्म की स्थापना के कारण
(Factors
of Establishing the Dhamma) धम्म के मुख्य सिद्धांत
(Main
Principles of Dhamma) धम्म प्रचार के साधन (MEASURES
OF PROPAGATE DHAMMA) धर्म का महत्त्व (Importance
of Dharma)- धम्म की स्थापना के कारण
(Factors
of Establishing the Dhamma) अशोक के धम्म की स्थापना के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे। इनका संक्षिप्त विवरण इस
प्रकार है- (i) वंश का
प्रभाव :- मौर्य सम्राटों की अपने युग के विचारों तथा
प्रवृत्तियों में गहरी रुचि थी। इस काल के कुछ समय पूर्व बौद्ध एवं जैन धर्म का
उद्भव हुआ था। चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म ग्रहण कर लिया था एवं राज त्याग करके एक
सच्चे जैन मुनि की भांति उपवास द्वारा शरीर त्याग किया था। अशोक का पिता बिन्दुसार
बौद्ध धर्म में विश्वास रखता था। मौर्यों ने यूनानियों से भी संबंध स्थापित किये
थे। अतः ऐसे उदार वातावरण में अशोक का अरूढ़िवादी विचारधाराओं की तरफ आकर्षित होना
स्वाभाविक था। (ii) सामाजिक एकता के लिए (For
maintaining social Unity) :- मौर्य सम्राटों ने भारत को एकता सूत्र में बांधने का सफल प्रयास किया। मौर्य
साम्राज्य के विस्तार में नागरिकता को जन्म दिया। ऐसे साम्राज्य की एकरूपता के लिए
जिसमें विभिन्न प्रकार की अर्थव्यवस्था एवं धर्मों की अनेकरूपता हो, को नियंत्रित करने के लिए, सैनिक बल की कम से कम आवश्यकता थी। अतः ऐसी
नीति के प्रचार एवं प्रसार की आवश्यकता थी जो समाज के सभी वर्गों पर प्रभाव डाल
सके। नये-नये सम्प्रदायों के उदय से वातावरण अशांत था। अतः नये एवं पुराने विचारों
में टकराव रोकने एवं सामाजिक एकता की स्थापना के लिए अशोक ने धम्म नीति को प्रचलित
किया। (iii) राजनीतिक एकता के लिए (For
Political Unity) :- अशोक के समय तक मौर्य
साम्राज्य काफी विशाल हो चुका था। यह साम्राज्य एक शक्तिशाली शासन के अधीन,
कुशल नौकरशाही द्वारा प्रशासित, व्यापक और अच्छे संचार साधनों से अन्त संबंधित होने के कारण अत्यधिक
केन्द्रीयकृत था। ऐसे साम्राज्य को नियंत्रित करने के लिए जैसा कि डॉ. रोमिला थापर
ने बताया कि दो ही उपाय सम्भव थे। एक सेना द्वारा लोगों को दबाकर रखना तथा दूसरा
विभिन्न सम्प्रदायों में अपना विश्वास प्रकट करना तथा सम्प्रदायों के सार संग्रह
को स्वीकार करना। अशोक ने दूसरे मार्ग को चुना जो बाद में मुगल सम्राट अकबर द्वारा
चुना गया।" अतः राजनैतिक एकता के लिए धम्म का प्रचार करना आवश्यक था। डॉ.
रोमिला थापर ने फिर लिखा है कि, “अपने धम्म प्रचार
के द्वारा अशोक धर्म के संकीर्ण दृष्टिकोण में परिवर्तन करने, दुर्बलों की शक्तिशालियों से रक्षा करने तथा
अपने साम्राज्य में एक विस्तृत सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को जाग्रत करने का
प्रयत्न कर रहा था, जिसका विरोध कोई
भी सांस्कृतिक समुदाय नहीं कर सकता था।" अपने दूसरे स्तम्भ लेख में अशोक स्वयं
प्रश्न पूछता है-कियं चु धम्मे? (धम्म क्या है।)
इसका उत्तर वह स्वयं दूसरे तथा सातवें अभिलेख में देता है। वह कहता है, 'अपासिनवे बहुकथाने दया दाने सचे सोचये मादवे
साधवे च धम्म'। अपासिन वे-पाप
रहित, बहुकथाने-अत्यधिक कल्याण,
दया है, दान है, सत्य है, साचये (पवित्रता है, मृदुता (मादवे), साधुता (साधवे है)। इन गुणों को व्यवहार में लाने के धम्म के सिद्धांत थे- (i) बड़ों का सम्मान (Respect for elders) :- अशोक ने अपनी प्रजा में इस बात का प्रचार किया कि हमें अपने
से बड़ों का आदर करना चाहिए। संतान को अपने माता-पिता का, विद्यार्थियों को अपने गुरु का तथा दासों को अपने स्वामी का
आदर करना चाहिए। इनके अलावा हमें ब्राह्मणों, भिक्षुओं, ऋषियों, मित्रों, संबंधियों तथा राज्य के अधिकारियों को भी उचित सम्मान देना
चाहिए। (ii) छोटों के प्रति प्रेमभाव (Love
for youngers) :- जिस प्रकार छोटे बड़ों का आदर करते हैं उसी
प्रकार बड़ों का कर्तव्य है कि वे अपने से छोटों को प्यार करें। माता-पिता अपनी
संतान को उचित वात्सल्य करें। गुरुजन अपने विद्यार्थियों को प्रेम करें, उच्च अधिकारी अपनी जनता से तथा धनवान गरीब एवं
असहायों व स्वामियों को अपने नौकरों से प्रेम का व्यवहार करना चाहिए। (iii) सत्य (Truth) :- धम्म के अनुसार मनुष्य को सदैव सत्य बोलना चाहिए। सत्य ही
नैतिक जीवन का सबसे मूल्यवान पद है। कभी भी झूठ का सहारा नहीं लिया जाना चाहिए। (iv) दान (Charity) :- अशोक ने धम्म में दान पर विशेष बल दिया है। उसने कहा कि
प्रत्येक मनुष्य को ब्राह्मणों, ऋषियों, भिक्षुओं, अनाथों तथा गरीबों को दान देना चाहिए। शिक्षा को उन्होंने
सर्वोत्तम दान कहा है। अशोक ने धम्म दान की महत्ता को भी समझाया है। 11वें शिलालेख में धम्म दान का अर्थ समझाते हुए
अशोक कहता है कि इसका अर्थ है धम्म के विषय में बताना, धम्म में भाग लेना तथा धम्म से संबंध स्थापित करना। धम्म
दान कोई भी किसी को कर सकता है-पिता पुत्र का, पुत्र पिता को, भाई-भाई को तथा अपने पड़ोसियों को यह दान कर सकता है। (v) अहिंसा (Non-Violence) :- अहिंसा धम्म का एक मुख्य सिद्धांत था। अशोक ने अहिंसा पर
अत्यधिक बल दिया व उसका प्रचार किया। उसने कहा कि हमें सभी जीवों से प्यार करना
चाहिए। उसने अपने राज्य में शिकार पर पाबंदी लगा दी थी तथा स्वयं मांस खाना छोड़
दिया था। स्तम्भ लेख II में उन पशु
पक्षियों की सूची दी गई है जिनकी हत्या करना अवैध घोषित कर दिया | (vi) पाप रहित जीवन (Life without Sins) :- अशोक ने लोगों को सादा तथा पवित्र जीवन व्यतीत करने पर बल
दिया। नभ लेख III में इस सिद्धांत
का प्रचार किया गया है। काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, अत्याचार आदि बुराइयां मनुष्य को पापी बनाती
हैं। अतः इनसे दूर रहना चाहिए। (vii) सच्चे रीति-रिवाज (True Ceremonies) :- अशोक ने अपने 9वें शिलालेख में धम्म मंगल पर बल दिया है। इस अभिलेख के अनुसार रोगों से मुक्त
होने, विवाहों, पुत्रों के जन्म तथा यात्रा के अवसरों पर
मनुष्य अनेक मंगलाचार करते हैं। अशोक ने इन आडम्बरपूर्ण मंगलाचारों से दूर रहने की सलाह दी। इनके
स्थान पर सत्य बोलने, दासों एवं सेवकों
से शिष्ट व्यवहार करने,गुरुजनों का आदर,
दयालुता आदि कार्य करने को कहा। (viii) धार्मिक सहनशीलता (Religious Tolerance) :- अपने 12वें शिलालेख में
अशोक ने अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार करने पर बल दिया है तथा अन्य
धर्मों की उन्नति की कामना की है। इसी शिलालेख में अशोक ने कहा है कि जो मनुष्य
अपने धर्म की पूजा तथा अन्य धर्म की निन्दा करता है वह अपने धर्म की ही हानि करता
है । (ix) आत्म-परीक्षा (Self Examination) :- अशोक ने अपने शिलालेखों में आत्म परीक्षा के सिद्धांत का
प्रचार किया। तीसरे स्तम्भलेख में वह मानता है कि मनुष्य जब कोई अच्छा काम करता है
तो वह खुश होता है परन्तु जब वह बुरा काम करता है तो वह पश्चाताप नहीं करता। इसलिए
समय-समय पर मनुष्य अपने अच्छे या बुरे कामों की समीक्षा करनी चाहिए। ऐसा करने
सेउसका आगामी जीवन सुधर सकता है। (x) धर्म का लक्ष्य-परलोक सुधार (Aim
of Dhamma-Reform for New life) ;- अशोक के धम्म का
उद्देश्य जनता के आगामी जीवन को सुधारना था। धौली तथा जौगढ़ के शिलालेखों में वह
कहता है कि, “मेरे मन में सबसे
प्रबल अभिलाषा यह है कि मेरी प्रजा को इस लोक तथा परलोक में सुख मिले। धम्म का पालन करने से मनुष्य
को स्वर्ग में सुख मिलता है।" शिलालेखX में वह कहता है
कि, “मेरे सारे प्रयत्न परलोक
के लिए हैं।" इस प्रकार अशोक के धम्म के सिद्धान्तों को देखने से स्पष्ट होता
है कि उसने कोई नया धर्म स्थापित नहीं किया उसने नैतिक एवं मानवीय सिद्धांतों का
प्रचार किया जो भारतीय परंपरा का अंग बन गये हैं। अशोक ने धम्म का प्रचार करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए- 1. व्यक्तिगत उदाहरण (Personal Example) :- अशोक ने स्वयं धर्म के सिद्धांतों को अपने जीवन में अपनाया।
उसने भोग विलास का जीवन छोड़कर सादा तथा सरल जीवन व्यतीत करना शुरू कर दिया। उसने
शिकार खेलना एवं मांस खाना छोड़ दिया। उसने युद्ध करना बंद कर
दिया तथा अपने परिवार या अपनी जनता के साथ प्रेम एवं उदारता का व्यवहार किया। उसके
शिलालेखा से पता चलता है कि वह अपनी प्रजा को संतान
समझता था। उसने सभी धर्मों के प्रति सहनशीलता की नीति अपनाई। इन सभी बातों का उसकी
प्रजा पर काफी प्रभाव पड़ा। होता है कि अशोक ने अपने शासन काल के 13वें
वर्ष में धर्ममहामात्र नामक
पदाधिकारियों की नियुक्ति की। इनका कार्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच के द्वेष भावना को
समाप्त कर धर्म की एकता पर बल देना था। 2. धर्म महामात्रों की नियुक्ति (Appointment
of Dhamma Mahamatras) :- अशोक के पांचवें शिलालेख
से विदित होता है कि अशोक ने अपने शासन काल के 13वें वर्ष में धर्ममहामात्र नामक पदाधिकारियों की नियुक्ति
की। इनका कार्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच के द्वेष भावना को समाप्त कर
धर्म की एकता पर बल देना था। उनका प्रमुख कर्तव्य धर्म की रक्षा करना,धर्म की वृद्धि करना था। इनके प्रयासों से धर्म
की वृद्धि हुई। डॉ. आर. एस. त्रिपाठी के अनुसार, “धम्म महामात्रों की नियुक्ति निस्संदेह एक महत्त्वपूर्ण बात
थी। उनका कर्तव्य प्रजा की भौतिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना था। 3. शिलालेखों एवं स्तंभ लेखों द्वारा प्रचार (Education
Through Rock and Pillar Edicts) :- धर्म का प्रचार
करने के लिए अशोक ने धर्म के सिद्धांतों को विभिन्न शिलाओं एवं स्तम्भों, गुफाओं आदि पर उत्कीर्ण करवाया तथा इनको
साम्राज्य के विभिन्न भागों में गढ़वाया गया ताकि लोग इनको पढ़कर इन्हें अपने जीवच
में उतार सकें। इनकी भाषा आम जनता की भाषा पाली थी। ऐसी धर्मालिपियों ने धर्म को
लोकप्रिय बनाया। 4. सरकारी अधिकारियों को आदेश (Instructions
to Govt Officers) :- अशोक ने धर्म प्रचार के
लिए साम्राज्य के अधिकारियों को भी लगा दिया। स्तम्भलेख
III व VII
से ज्ञात होता है कि उसने ‘रज्जुक', 'प्रादेशिक' एवं
'युक्त' नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म के
प्रचार एवं उपदेश देने का आदेश दिया। ये अधिकारी प्रति पांचवें वर्ष साम्राज्य के
विभिन्न क्षेत्रों में दौरों पर जाते थे तथा साधारण प्रशासकीय कार्यों के साथ-साथ धर्म प्रचार का
कार्य भी करते थे। डॉ. रोमिला थापर ने लिखा है कि, “अशोक ने धर्म प्रचार हेतु मगध साम्राज्य की प्रशासनिक
व्यवस्था को प्रचार मशीन के रूप में परिणित कर दिया। 5. धर्म श्रावण (Dharma Shravan) ;- सातवें स्तम्भलेख के अनुसार अशोक समय-समय पर जनता को
धार्मिक संदेश देता था। वह जनता से सीधे सम्पर्क करके धार्मिकता का उपदेश देकर तथा
उसी आध्यात्मिकता के बारे में प्रश्न पूछकर, धर्म का प्रचार करता था। राजा द्वारा स्वयं उपदेश देने से प्रजा के मन पर
निश्चित रूप से गंभीर प्रभाव पड़ा हो तथा इससे धम्म की तेजगति से उन्नति हुई होगी।
इसी कारण डॉ. भण्डारकर ने लिखा है कि, “अशोक सच्चे अर्थों में धर्म प्रचारक बन गया।" अशोक के धम्म का मौर्य इतिहास एवं भारतीय इतिहास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण
स्थान है। डॉ. आर.के. मुखर्जी के अनुसार, "शायद अशोक इतिहास का ऐसा पहला शासक था जिसने अपनी प्रजा के
आगामी जीवन को सुधारने के लिए धर्म की स्थापना की।” उसने कलिंग विजय के पश्चात् युद्धों को त्यागकर विश्व के
सम्मुख एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया। उसने अपने अथक प्रयासों के द्वारा अपनी धम्म
नीति का जनता में प्रचार किया। उसने समाज में प्रचलित व्यर्थ के रीति रिवाजों की
आलोचना करके अपनी प्रजा के नैतिक एवं आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास
किया। धम्म ने भारतीय जन मानस पर व्यापक प्रभाव डाले। पहले, धर्म के कारण लोगों का नैतिक स्तर ऊँचा उठा तथा लोगों ने
सादा एवं पवित्र जीवन व्यतीत करना शुरू किया। दूसरे, अशोक के धम्म प्रचार के कारण लोगों ने एक दूसरे के धर्मों
का पालन करना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का उदय
हुआ। तीसरे, लोगों के उच्च
नैतिक जीवन की पालना करने के कारण पापों दूर रहना सीखा। परिणामतः समाज में अपराधों की
संख्या कम हो गई। चौथे, अशोक के अपने
धम्म का प्रमुख उद्देश्य प्रजा का कल्याण था इसलिए अनेक प्रजा हितैषी कार्य किए
गये जिससे प्रजा में सुख एवं समृद्धि आयी। पांचवें, राज्य में शांति एवं व्यवस्था के वातावरण में व्यापार एवं
वाणिज्य का विकास हुआ। छठे, अशोक द्वारा धर्म
के नियमों को शिलाओं एवं स्तम्भों में खुदवाकर गड़वाया गया जिससे कला एवं साहित्य
का विकास हुआ। परन्तु अशोक की धम्म नीति के राजनैतिक परिणाम अच्छे नहीं रहे। डॉ. भण्डारकरसे ने लिखा है, “यह नीति एक केंद्रीय राज्य आकांक्षा के लिए
घातक सिद्ध हुई। डॉ. रायचौधरी का मत है कि, “इस नीति परिवर्तनका राजनैतिक प्रभाव अशोक की मृत्यु के बाद
ही सामने आने लगा। मगध साम्राज्य का विकास बंद हो गया तथा धीरे-धीरे वह पतनोन्मुखहोने
लगा। परन्तु डॉ. अवध बिहारी श्रीवास्तव भारत के सांस्कृतिक विकास के लिए इस नीति
को महत्त्वपूर्ण मानते हैं।
अशोक को विश्व का महानतम सम्राट माना जाता है। परंतु विश्व के अन्य महान
सम्राटों की तरह अशोक की महानता का कारण राज्य का भौगोलिक विस्तार नहीं था। अशोक
की महानता का कारण उसके नैतिक विचार थे जो उस युग से अशोक स्वयं इस बात को स्वीकार
करता था कि किसी राजा की प्रसिद्धी का मापदण्ड उसकी प्रजा का नैतिक उत्कर्ष है।
अशोक अपने इस उद्देश्य में सफल रहा। अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए अशोक ने
अपने अभिलेखों द्वारा प्रजा में नैतिक सिद्धांतों का प्रचार किया जिन्हें सामूहिक
रूप से अशोक का धम्म कहा गया है। 'धम्म' संस्कृत में 'धर्म' शब्द का ही
प्राकृत रूपांतर है परन्तु अशोक के लिए इस शब्द का विशेष महत्त्व है। अशोक की
प्रसिद्धी का कारण यह धम्म या धर्म क्या था। इस बारे में विद्वानों के बीच गहरे
मतभेद हैं। धम्म
के मुख्य सिद्धांत (Main Principles of
Dhamma)
धम्म
प्रचार के साधन (MEASURES OF PROPAGATE DHAMMA)
धर्म का महत्त्व (Importance of Dharma)-
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