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मौर्यकालीन प्रशासन (Adminstration of Mauryan in hindi)

 

मौर्यकालीन प्रशासन (Adminstration of Mauryan)

मौर्य काल में राजधानी पाटलिपुत्र में स्थित थी। प्रशासन को सुचारू रूप से चलने के लिए साम्राज्य को चार प्रमुख भागों में बांटा गया था। पूर्वी क्षेत्र की राजधानी तौसाली थी। उत्तरी क्षेत्र की राजधानी तक्षशिला थी जबकि पश्चिमी उज्जैन में स्थित थी। दक्षिणी क्षेत्र की राजधानी सुवर्णगिरी थी। मौर्य प्रशासन की जानकारी का मुख्य स्त्रोत कौटल्य का अर्थशास्त्र और यूनानी लेखक मेगस्थनीज़ की इंडिका से मिलती है। अशोक के अभिलेखों से भी इस सम्बन्ध महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।


1)केंद्रीय प्रशासन (central adminstration)

i) राजा :- मौर्यकाल में प्रशासन मुख्य रूप से राजा में ही निहित था। प्रशासन के प्रमुख अंगों कार्यपालिका, व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका पर उसका नियंत्रण होता था। राजा सैनिक, न्यायिक, वैधानिक एवं कार्यकारी मामलों में सर्वोच्च अधिकारी था। वह सेना का सबसे बड़ा सेनापति, प्रधान न्यायाधीश, कानूनों का निर्माता तथा धर्म प्रवर्तक माना जाता था। वह साम्राज्य के सभी महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति करता था तथा वह उनको पद से हटा भी सकता था। विदेशी मामलों का भी वह प्रमुख था। युद्ध व सन्धि का अन्तिम निर्णय वही करता था। राज्य की आय व्यय का ब्योरा भी उसी के सामने रखा जाता था। गुप्तचरों द्वारा भेजी गई सूचनाओं का भी वह स्वयं निरीक्षण करता था। शाम शास्त्री के अनुसार, “इतने न्यायिक अधिकारों के होते हुए भी चन्द्रगुप्त स्वेच्छाधारी शासक नहीं था बल्कि सदैव प्रजा के हितों का ध्यान रखता था।" मेगस्थनीज हमें बताता है कि वह दिन में सोता नहीं था तथा सारा दिन राजकीय कामों में लगा रहता था। चन्द्रगुप्त एक विशाल महल में ठाठ-बाट से रहता था उसकी राज सभा ऐश्वर्य तथा शान-शौकत से परिपूर्ण थी। वह अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की तरफ विशेष ध्यान देता था तथा अंगरक्षक से घिरा रहता था। उसके अंगरक्षकों में स्त्रियां भी  थीं।

ii) मंत्रिपरिषद :-  मंत्रिपरिषद  के सदस्यों का चुनाव अमात्यों में से उपधा परीक्षण के बाद होता था। मंत्रिपरिषद के सदस्यों को 12 हजार पण वार्षिक वेतन मिलता था। इस परिषद की अधिकांश बैठकें गुप्त रूप से सम्पन्न होती थीं। सम्भवतः कोई भी निर्णय बहुमत के आधार पर लिया जाता था। परिषद का राजा पर पूर्ण नियन्त्रण था किन्तु राजा परिषद के निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं था। चाणक्य के अर्थशास्त्र में शीर्षस्थ अधिकारी के रूप में तीर्थ का उल्लेख मिलता है। इन्हें महामात्र भी कहा जाता था। इनकी संख्या 18 थी:-

1-प्रधानमंत्री और पुरोहित--पुरोहित प्रमुख धर्माधिकारी होते थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ये दोनों विभाग चाणक्य के पास थे। बिन्दुसार का प्रधानमंत्री खल्लाटक तथा अशोक के प्रधानमंत्री राधागुप्त थे।

2-समाहर्ता--यह राजस्व विभाग का प्रमुख अधिकारी होता था। इसका प्रमुख कार्य राजस्व एकत्रित करना, आय-व्यय का ब्यौरा रखना एवं वार्षिक बजट तैयार करना होता था।

3-सन्निधाता--यह राजकीय कोषाध्यक्ष होता था। इसका वेतन 24000 पण वार्षिक होता था।

 

4-सेनापति--यह युद्ध विभाग का प्रधान होता था। इसका वेतन 48 हजार पण वार्षिक था।

5-युवराज--राजा का उत्तराधिकारी

6-प्रदेष्ठा--फौजदारी (कण्टकशोधन) न्यायालय का न्यायाधीश

7-नायक--यह युद्ध में सेना का नेतृत्व करता था।

8-कर्मान्तिक--साम्राज्य के उद्योग धंधों का प्रधान निरीक्षक।

9-व्यवहारिक--यह दीवानी न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश होता था।

10-मन्त्रिमण्डल अध्यक्ष--यह मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष होता था।

11-दण्डपाल--सेना की सामग्री को एकत्रित करने वाला अधिकारी।

12-अन्तपाल--सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक।

13-दुर्गपाल--देश के अन्दर के दुर्गों का रक्षक।

14-नागरक--नगर का प्रमुख अधिकारी।

15-प्रशास्ता--राजकीय आदेशों को लिपिबद्ध कराने वाला एवं राजकीय कागजातों को सुरक्षित रखने वाला अधिकारी।

16-दौवारिक या द्वारपाल--राजमहलों की देख रेख करने वाला प्रमुख अधिकारी।

17-अन्तर्वशिक--राजा की अंग रक्षक सेना का प्रमुख अधिकारी।

18-आटविक--वन विभाग का प्रधान अधिकारी।

इसके अतिरिक्त कौटिल्य के  अर्थशास्त्र में 26 अध्यक्षों का भी विवरण मिलता है। जो विभिन्न विभागों में अध्यक्ष के रूप में मंत्रियों के नीचे काम करते थे:-

v  पण्याध्यक्ष- वाणिज्य विभाग का अध्यक्ष

v  सुराध्यक्ष- आबकारी विभाग का अध्यक्ष

v  सूनाध्यक्ष- बूचड़खाने का अध्यक्ष

v  गणिकाध्यक्ष- गणिकाओं का अध्यक्ष

v  सीताध्यक्ष- कृषि विभाग का अध्यक्ष

v  अकराध्यक्ष- खान विभाग का अध्यक्ष

v  कुप्याध्यक्ष- वनों का अध्यक्ष

v  कोष्ठगाराध्यक्ष- कोष्ठगार का अध्यक्ष

v  आयुधगाराध्यक्ष- आयुधगार का अध्यक्ष

v  शुल्काध्यक्ष- व्यापार कर वसूलने वाला

v  सूत्राध्यक्ष- कताई-बुनाई विभाग का अध्यक्ष

v  लोहाध्यक्ष- धातु विभाग का अध्यक्ष

v  लक्ष्नाध्यक्ष- छापेखाने का अध्यक्ष

v  गो-अध्यक्ष- पशुधन विभाग का अध्यक्ष

v  विविताध्यक्ष- चरागाहों का अध्यक्ष

v  मुद्राध्यक्ष- पासपोर्ट विभाग का अध्यक्ष

v  नवाध्यक्ष- जहाजरानी विभाग का अध्यक्ष

v  पत्त्नाध्यक्ष- बन्दरगाहों का अध्यक्ष

v  संस्थाध्यक्ष- व्यापारिक मार्गों का अध्यक्ष

v  देवताध्यक्ष- धार्मिक संस्थाओं का अध्यक्ष

v  पोताध्यक्ष- माप-तौल का अध्यक्ष

v  मानाध्यक्ष- दूरी और समय से सम्बंधित साधनों की नियंत्रित करने वाला अध्यक्ष

v  अश्वाध्यक्ष- घोड़ों का अध्यक्ष

v  हस्ताध्यक्ष- हाथियों का अध्यक्ष

v  सुवर्णाध्यक्ष- सोने का अध्यक्ष

v  अक्षपटलाध्यक्ष- महालेखाकार

2) प्रान्तीय शासन (Provincial Administration) :- चन्द्रगुप्त मौर्य ने शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए अपने विशाल साम्राज्य को प्रान्तों में बांटा हुआ था। चन्द्रगुप्त के समय प्रान्तों की निश्चित संख्या की जानकारी कम है, परन्तु अशोक के समय मौर्य साम्राज्य पांच प्रान्तों में विभाजित था-

i) प्राच्य अथवा मध्य प्रान्त-इसमें उत्तर प्रदेश, बंगाल और बिहार शामिल थे तथा इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।

ii) उत्तरापथ या उत्तरी पश्चिमी प्रान्त-इसमें कम्बोज, गांधार, कश्मीर, अफगानिस्तान और पंजाब आदि शामिल थे। इसकी राजधानी तक्षशिला थी।

iii) अवन्ति या पश्चिमी प्रान्त-इसमें गुजरात, काठियावाड़, मालवा, राजपूताना आदि शामिल थे। इसकी राजधानी उज्जैन थी।

iv) दक्षिणापथ या दक्षिणी प्रान्त-इसमें विन्ध्याचल से दक्षिण का भू-भाग सम्मिलित था। इसकी राजधानी सुवर्णागिरी थी। के. एस. आयंगर ने इसकी पहचान रायचूर जिले में स्थित आधुनिक कनकपुरी से की है।

v) कलिंग-कलिंग को अशोक ने जीतकर अपना पांचवां प्रान्त बनाया था। उसकी राजधानी तोशाली थी।

प्रान्त के मुखिया को 'कुमार' कहा जाता था। हुल्श के अनुसार कुमार का पद केवल राजकुमारों को ही मिलता था। अशोक पहले उज्जैन का तथा बाद में तक्षशिला का गवर्नर रह चुका था परन्तु कभी-कभी अन्य योग्य व्यक्तियों को भी राज्यपाल बनाया जा सकता था। 'कुमार' या 'गवर्नर' का मुख्य कार्य राज्य में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखना तथा वहाँ की जनता के कल्याण के लिए कार्य करता था। वे राज्य में राजा के आदेशों को भी लागू करते थे। वे आवश्यकता पड़ने पर राजा को सैनिक सहायता भी देते थे।

3) नगर प्रशासन :- मौर्यकालीन नगर व्यवस्था की जानकारी मेगास्थनीज़ की पुस्तक इंडिका से मिलती है। इस पुस्तक में मेगास्थनीज़ ने नगर के प्रशासन के लिए 6 समितियों का वर्णन किया है, यह 6 समितियां व उनके कार्य निम्नलिखित हैं :-

v  प्रथम समिति उद्योगों का निरीक्षण करना।

v  द्वितीय समिति क्षेत्र में आने वाले विदेशियों की देखरेख करना।

v  तृतीय समिति इस समिति का कार्य जनगणना करना था।

v  चतुर्थ समिति इस समिति का कार्य व्यापार व वाणिज्य की व्यवस्था करना था।

v  पंचम समिति इस समिति द्वारा विक्रय व्यवस्था इत्यादि की व्यवस्था की जाती थी।

v  षष्ठ समिति बिक्री इत्यादि की व्यवस्था।

यूनानी लेखक मेगास्थनीज़ ने अपनी पुस्तक इंडिका में पाटलिपुत्र के नगर प्रशासन के वर्णन किया है। पाटलिपुत्र नगर का प्रशासन 30 सदस्यों के समूह द्वारा किया जाता था। इसकी कुल 6 समितियां होती थीं तथा प्रत्येक समिति के 5 सदस्य होते थे। इस दौरान नगर परिषद् के द्वारा जनकल्याण कार्य जैसे मार्ग निर्माण, चिकित्सालय निर्माण व शिक्षा की व्यवस्था इत्यादि जैसे कार्य किये जाते थे।

4) न्याय प्रशासन :- मौर्यकाल में विभिन्न किस्म के मामलों के लिए अलग-अलग न्यायालयों की व्यवस्था थी। ग्राम न्यायलय सबसे निम्नतर का न्यायालय था। इस न्यायालय में ग्राम का प्रधान व गाँव ने बुज़ुर्ग लोगों द्वारा न्याय किया जाता था। राजा का न्यायालय मौर्यकाल का सर्वोच्च न्यायालय था।

5) सैन्य प्रशासन :- मौर्यकाल में साम्राज्य के विस्तार का एक प्रमुख कारण उनकी संगठित व सुव्यवस्थित सेना थी। मौर्यकाल में पैदल सेना, घुड़सवार सेना, गज सेना, रथ सेना व नौ सेना प्रमुख थी। यह सेनाएं किसी भी दशा में राज्य की सुरक्षा करने में सक्षम थीं। सैन्य प्रबंध के सर्वोच्च अधिकारी को अंतपाल कहा जाता था। यूनानी लेखक ने अपनी पुस्तक में मौर्यकालीन सेना का वर्णन किया है, मेगास्थनीज़ के अनुसार मौर्य सेना में 6 लाख पैदल सेना, 50 हज़ार घुड़सवार सैनिक, 9 हज़ार हाथी और 800 रथसवार सैनिक थे।

6) गुप्तचर व्यवस्था :- संभवतः मौर्यकाल में सर्वप्रथम गुप्तचरों को इतने बड़े स्तर पर नियुक्त किया गया। राज्य को आंतरिक विद्रोह व बाहरी आक्रमण से बचाने में गुप्तचरों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। यह राज्य की सुरक्षा सम्बन्धी सूचना सेना को देते थे। गौरतलब है कि इस काल में स्त्रियाँ भी यह कार्य करती थीं। मौर्यकाल में संस्था और संचरा नामक दो गुप्तचर संस्थाएं अस्तित्व में थीं।

7) राजस्व प्रशासन :- मौर्य में पण नामक मुद्रा प्रचलन में थी। कर्मचारियों को इसी मुद्रा में वेतन दिया जाता था। मौर्य साम्राज्य में आय का मुख्य स्त्रोत कृषि तथा अन्य भूमि करों से प्राप्त होने वाला राजस्व था। मौर्यकाल में दुर्ग, राष्ट्र, सेतु, व्रज, सीता, प्रणय, हिरनी, कुछ गाँव द्वारा इकट्ठे दिया जाना वाला कर, वर्तनी तथा पिन्द्कर राजस्व के प्रमुख स्त्रोत थे। कृषि योग्य भूमि पर कुल उत्पादन का एक चौथाई या छठा भाग भू-राजस्व या लगान के रूप में वसूल किया जाता था। कई क्षेत्रों में राज्य द्वारा सिंचाई की सुविधा उपलब्ध करवाई जाती थी, ऐसे क्षेत्रों से 1/3 कर लिया जाता था।

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