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जैन और बौद्ध धर्म के उदय के कारण(cuses for the rise of jainism and buddhism in hindi)

 

जैन और बौद्ध धर्म के उदय के कारण

जैन एवं बौद्ध धर्म के उदय या नवीन धार्मिक आंदोलनों के उदय के कारण हेतु अनेक कारण उत्तरदाई थे, जिन्हेंनिम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है-

1) नवीन धर्मों की उत्पत्ति का वातावरण -

इस काल में भारत में ही नहीं, वैश्विक आस्था पर नवीन धर्म काउदय हो रहा था। जहां भी परंपरागत व्यवस्था मानव प्रगति कामार्ग अवरुद्ध कर रही थी, उसके विरुद्ध वहां के लोगों ने आंदोलनकिए तथा नवीन राजनीतिक, आर्थिक सामाजिक एवं धार्मिकआवश्यकताओं के अनुकूल स्वरूप वाले धर्मों को स्वीकार किया।इस काल में चीन में कन्फ्यूशियस, ईरान में ज़रथुष्ट्र, यूनानमेंपाइथागोरस आदि। इस काल में भारत में भी लगभग 62 धार्मिकसंप्रदायों का उद्भव हुआ, जिनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थायी जैन बौद्ध धर्म थे।

2) ब्राह्मणवादी व्यवस्था के प्रति और संतोष-

छठी सदी .पू. के दौरान प्राचीन भारत के राजनीतिक, आर्थिकएवं सामाजिक क्षेत्र में कई परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों में समाज में नवीन आवश्यकताओं को जन्म दिया, जबकि परंपरागत ब्राह्मणवादी व्यवस्था में ऐसी आवश्यकता हूं की पूर्ति संभव नहीं थी। यही कारण है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था के प्रति विभिन्न वर्गों में गंभीर असंतोष की भावना उत्पन्न हुई, जिसने जैन एवं बौद्ध धर्म के उद्भव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

2.1 क्षत्रिय वर्ण का असंतोष >  छठी सदी .पू. में क्षत्रिय वर्ण की स्थिति में सुधार हुआ। इस काल में युधास्त्रो के रूप में लोहे के प्रयोग ने तथा नियमित भू - राजस्व प्राप्त होने से शासक वर्ग, अर्थात - क्षत्रियों की स्थिति मजबूत हो गई थी। इसी काल में 16 महाजनपदों का भी उदय हुआ था तथा उन में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने का संघर्ष भी प्रारंभ हो गया। युद्ध के इस वातावरण में राजनीतिक क्षेत्र में क्षत्रिय वर्ण का महत्व अधिक बढ़ गया था |किंतु परंपरागत वर्णाश्रम व्यवस्था में अभी - भी क्षत्रियों को ब्राह्मणों के बाद स्थान प्राप्त था यही कारण है कि इस परंपरागत वर्णाश्रम व्यवस्था का क्षत्रियों द्वारा विरोध किया गया। हम इसे महज संयोग नहीं मान सकते की बुद्ध एवं महावीर का संबंध क्षत्रिय वर्ण से था।

2.2 वैश्य वर्ण का असंतोष >  छठी सदी .पू. आर्थिक क्षेत्र में कई सकारात्मक परिवर्तन हुए। इन परिवर्तनों के कारण वैश्य वर्ण की आर्थिक स्थिति को मजबूत हुई थी, किंतु ब्राह्मणवादी वर्णाश्रम व्यवस्था में उन्हें तृतीय स्थान ही प्राप्त था। ब्राह्मणवादी व्यवस्था में सूदखोरी, महाजनी एवं व्यवसाय परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाए गए थे। वैश्य वर्ण की संपत्ति का एक हिस्सा ब्रह्मणवादी कर्मकांडो मे ही व्यय हो जाता था, जबकि यह वर्ग अपना संपूर्ण धन विकसित हो रही अर्थव्यवस्था में निवेश करना चाहता था। अतः परंपरागत ब्राह्मण वादी व्यवस्था के प्रति वैश्य वर्ण में तीव्र असंतोष था। अतः वैश्य वर्ण ने जैन एवं बौद्ध धर्म जैसे धर्मों के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, क्योंकि इन धर्मों में तो कोई व्यापारिक प्रतिबंध लगाए गए थे और ना ही कर्मकांडो एवं खर्चीली पूजा पद्धति पर बल दिया गया था।

2.3 शुद्र वर्ण का असंतोष > ब्रह्मणवादी वर्णाश्रम व्यवस्था में सबसे निम्न स्थान शूद्रो को दिया गया था। इस काल में जाति व्यवस्था के उद्भव से सूत्रों के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार भी किया जाता था। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने एवं यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। इस प्रकार ब्राह्मणवादी व्यवस्था में शूद्र वर्ण को मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। चूकि जैन एवं बौद्ध धर्म में सहज पूजा पद्धति से शुद्र एवं दासों को भी मोक्ष प्राप्त करने का अवसर था। अतः इस वर्ण ने भी जैन एवं बौद्ध धर्म के उद्भव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

3) महात्मा बुद्ध एवं महावीर का योगदान -

 जैन एवं बौद्ध धर्म के उद्भव में गौतम बुद्ध एवं महावीर की योग्यता, कुशलता, व्यावहारिक बुद्धि एवं कार्य - पद्धति का भी महत्वपूर्ण योगदान था। बुद्ध एवं महावीर दोनों ही अपनी योग्यता एवं कुशलता से आवश्यकतानुसार अपने सिद्धांतों में परिवर्तन किए। बौद्ध धर्म मेंप्रारंभ में महिलाओं को संघ में शामिल नहीं किया गया था, किंतु आगे महिलाओं को भी संघ में शामिल कर लिया गया। इन दोनों महापुरुषों ने व्यवहारिक बुद्धि का प्रयोग करते हुए दासों एवं शूद्रों को भी मोक्ष का अधिकारी माना। बुद्ध एवं महावीर दोनों ने अपने धर्म के प्रचार प्रसार हेतु संघ का गठन किया। धर्मों के प्रचार में इन संघों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इन दोनों महापुरुषों के सहज, सरल एवं संयमित जीवन पद्धति ने भी जैन एवं बौद्ध धर्म के प्रति लोगों में आकर्षण उत्पन्न किया।

4) जैन एवं बौद्ध धर्म के आदर्श -

जैन एवं बौद्ध धर्म के उद्भव में इन धर्मों में प्रचलित प्रगतिशील आदर्शों का भी महत्वपूर्ण योगदान था। दोनों धर्मों में अहिंसा, प्रेम, दया, करुणा, अल्पसंचय- अल्पव्यय, परोपकार, संयम जैसे आदर्शों पर बल दिया गया था। वस्तुतः यह कुछ ऐसे आदर्श थे, जिन्हें विश्व के किसी भी नस्ल, जाति, भाषा, संप्रदाय के लोगों के द्वारा अपनाया जा सकता था। यही कारण है कि जैन एवं बौद्ध धर्म केवल भारत तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसका प्रचार विश्व के अन्य देशों में भी हुआ। अतः हम यह कह सकते हैं की जैन एवं बौद्ध धर्म के उद्भव में इन धर्मों के प्रगतिशील सिद्धांतों एवं आदर्श का भी महत्वपूर्ण योगदान था।

5) राजकीय संरक्षण -

बौद्ध एवं जैन धर्म की लोकप्रियता एवं सफलता का एक प्रमुख कारण यह था कि तत्कालीन शासकों,जैसे - बिमंबासार, अजातशत्रु, उदयिन, कलाशोक, चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक ने इन्हीं धर्मों को अपना संरक्षण प्रदान किया तथा इनके प्रसार में योगदान दिया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन व बौद्ध धर्म के उदय एवं लोकप्रियता में ऊपर वर्णित कारणों की सम्मिलित भूमिका थी।

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